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सुधा धवल स्वर्णिमा कांतियुत दिव्य तेज प्रभु शरीर सुंदर, भक्त हृदयसागरको उलसे रजनीनाथ बन विभुजी अंबर; प्रणत भाव मुज प्रभुचरणों में रोमांचित हो तनु मुज अर्पित, तीर्थपति जगतारक चंदन कर आनंदित भक्ति समर्पित.
तेरे मुखशशिकी उपमा को वर्णन करने बुद्धि कहां है ? नयनकमल मृदुता मैं देखं दिव्य नयन मुज पास कहां है? तुज बाणी अमृतरस पीने श्रोत्रंद्रिय मुज दिव्य कहां है ?
हर्प प्रफुल्लित हदय बनाने ग्राहक मन मुज पास नहीं है. दिव्य गंध तुजसे जो निकले कैसे अनुभवगम्य मुजे हो ? पामर हूं में शून्य हृदयसा तुज गुण कैसे ज्ञात मुजे हो ? तुज सन्निधि को पाने मेरा पुण्य वडा सद्भाग्य कहां है ? निष्पुण्यक मैं तुच्छ रहा हूं सद्गुण मुजमें कौन रहा हैं ? .
तुज गुण गाने कंठ कहांसे लावू मैं और शुद्ध' कहांसे ? कवि जनमके गुणमणि प्रतिभा अद्भुत रसकी लावु कहांसे ? मृदुमधु रसधारा कविजनकी भुज मनमें हो प्राप्त कहांसे ?
भक्तिसुधा मुनिजन मुखनिर्गत मुजको कैसे मिले कहांसे ? एकतान तुज भजन यजनमें मस्त बनूं मैं कैसे प्रभुजी ? मंदोदरी रावणकी वीणा वादन अनुभव हो मुज प्रभुजी; भूल गये निजको वन प्रभुमय आत्मानंद मगन जब बनते, भाग्य कहां है मेरा अनुपम सुखमय ज्ञानदशा अनुभवते.
मंदोदरी का नृत्य नहीं वह आत्मोत्थान परम सुख पदमें, वीणा नहीं वह बजी भजनमें मुक्तिपुरी झंकार भुवनमें; रसास्वाद बह परम सौख्यका विदु मात्र मुज प्रगट आत्ममें,
धन्य धन्य मानूंगा निजकुं सफल जन्म हो आज भुवन में. परमोपासक गौतम ऋषिवर सान्निध नित्य प्रभुके रहते, प्रभु-मुखसे वाणी जब सुनते नेम सब मनका दूर हटाते; सेवक-सेवा-सेव्य एक हो परमानंद सुधां वे पीते, अंश प्राप्त उलका हो मुजको धन्य बनूं मैं अमृत पीते.
सरस्वती भी तुज गुण वर्णन पूर्ण नहीं कर सकी गिरासे, मुनिजन ऋषिगण पंडित सबने जिह्वा मूक बनाई ध्यानसेः दिनकर आगे खजुआ हूं मैं अज्ञानी मंदधी अधूरा,
बालेन्दु नतमस्तक हो अर्पण करता मन तनु धी सारा. XXEXEKEXOXOXOKE (3४ )6XSXEX-OXOXEXEX
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