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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है E ST-- -- - -- - मन को उपालंस ! भो शिर मन! तुझा को कह मैं प्रेग के दो शब्द से । ३२ ग कुछ गान ले हिपता सुन लेगा रो ॥१॥ तूंदपाल अधिर भटकता विश्राप पल तुझ नो नहीं। संदिर प्रभू के भजन में जप जाप्य पूजन में सही ॥२॥ निहारता मानक के गुण आत्म को भनका रहा।। ! पल घडी , पिकति करता क्या कहूं तुझ को अहा! ॥ ३ ॥ क्या यह कार क्या वह करूं निश्चय न तूं करता रहा । क्षण एक परिवर्तन कराता अथिर गुज करता रहा ॥ ४ ॥ सामायिकादि ध्यान में मंगल सुपौषधशाल में । व्यापार तूं करता खडा, संसार के व्यवहार में ॥५॥ मिष्टान्न खाऊ मिरच खाऊ शिथिल निश्चय हो रहे । गेसे नचाता तूं हमेशा कौन तुझकू क्या कहे ? ॥ ६ ॥ गीता गुण या स्थान पाया उच्चता में जा रहा । से गुणी को भी गिराता घोर गर्ता में शहा ॥ ७ ॥ साधू बनी बत को उचारी वंदा सय को जो दुवा । पलटा दिया शुभ भाव उसका क्या वह तुझ को हुवा ॥ ८॥ खल कोश - और मान कु. या धौर मायाजाल कू। → लोभ दुष्णम् कू चलाता पतित करता संत कू ॥ २ ॥ मादी बडे शास्त्री हुए शान पंडितों क जीतते । मेरी न हो अनुकूलता ये भी घडाघड गीरते ॥ १० ॥ को वति नाँस पर न चढ़ा के पटकाना । ही उन्हों की ओंरपरा ढांकता नहीं छोड़ना ॥११ ।। को दश घनवट आता को भूल के ये भटगाने। नारी जाति को दीर्म कांति में नो यो बरकत ॥१२॥ र म मामा का मारे ! मास सेरक जान । माय मी याला पर बनवा रहा पहिलाच ले ॥१३॥ मट का कोई विवि चंचल नाय तुझा को दे रहे । बिजली कहे कोई अधिरता का तूं नमूना कार गरे ॥ १४ ॥ -- - -e e-Ke-SE-STRE For Private And Personal Use Only
SR No.533770
Book TitleJain Dharm Prakash 1948 Pustak 064 Ank 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Dharm Prasarak Sabha
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1948
Total Pages32
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Prakash, & India
File Size12 MB
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