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સમ્યભાવે જાણીને, જે પાળવામાં પૂર્ણ છે, અનુકમ્પભાવે આદરી, વળી ન્યાયમાં નિપુણ છે; દેશથી ને સર્વથી, જે વ્રત સંયમાદિ પાળતા, શાસ્ત્રકારે એ જીવને, મહાવ્રતધારી માનતા. ૮
માસ્તર મગનલાલ મેતીચંદ શાહ-વઢવાણ કે
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देह के ही कार्य में दिनरात आशिक हो रहे । इस देह के ही कार्य में, दिनरात आशिक हो रहे । भूलकर निज आत्म को, निज आत्म सत्ता खो रहे ॥१॥ समर्थ भी होते हुवे, फिर मानते असमर्थ ही।
हो कर के आत्मेश्वर मगर, फिर रंक जैसे हो रहे ॥२॥ जादु डाला मोहने, फिर मोहनी से वश कीया । शक्ति दवाई इसने अपनी, इस से गाफिल हो रहे ॥३॥ है देह से यह आत्म झुदा, भेद यह समझा नहीं। फिर इसके पीछे आप को, बरबाद क्यों ही कर रहे? ॥४॥ है ध्येय निज के आत्म का, लेकिन भुलायो देहने । कामिनी भुलाती कामी को, यही हाल अपने हो रहे ॥ ५ ।।
कामिनी मतलब की गर्जि, जानता कामी नहीं ।
शक्ति को बरबाद कर के, हाथ को फिर धो रहे ॥६॥ दिन रात कर कर के तकाजा, कार्य यह करवा रही। नहीं आत्महित के कार्य पर, नहीं ध्यान ही कुछ दे रहे ।। ७ ।।
देहरूपी अस्थिपिंजर, खाक यहां हो जायगी। होगी दशा क्या आत्म की, बेभान इससे हो रहे ॥ ८ ॥ बेभानता सब दूर कर, जिनधर्म को ही धारकर । निज रूपको पहिचान लो, गुणज्ञ सब यह कर रहे ॥ ९ ॥ चिद्रप है चेतन्य है, हम शुद्ध बुद्ध ही आतमा । देह तो साधन है अपनी, साध्य को क्यों खो रहे? ॥ १० ॥ साध्य अपना मुख्य ही है, आत्म से परमात्म का। इसको भूलाकर व्यर्थ क्यों ?, फिर देह में आशिक हो रहे ॥ ११ ॥
है विनय यह 'राज' अव, देह की आसक्ति तज । निज आत्महित को साध लो, तो जन्म सार्थक कर रहे ॥ १२ ॥
- राजमल भंडारी-आगर (मालवा)
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