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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org $4000 ce मानवदेह | 10000008 मीली है देह मानव की, महाभव- सिन्धू तिरने को । भूला कर ध्येय यह उत्तम, लगाई भोग में इसको अनादि काल से भोगे, न आई भोग में तृप्ति । यही तृप्ति अतृप्ति है, समझना मर्म में इसको * आत्मघन - ज्ञान, दर्शन, चारित्र । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ २ ॥ हुवा जब पुन्य का संचय, मीली यह देह मानव की । जो देवों को भी दुर्लभ है, समझना तत्त्व में इसको ॥ ३ ॥ अपूरव वस्तु दुर्लभ पा, किया उपयोग इसका क्या ? । गुमाई भोग में है क्या ?, विचारो बुद्धि से इसको ॥ ४ ॥ अत्युत्तम रत्न की कीमत, कहो अनभिज्ञ क्या जाने ? लखे यह काच हीरा सम, समझता है न भेदों को →(283) ॥ ५ ॥ । ॥ ९ ॥ बनाया विश्वने यह ध्येय, उपार्जन द्रव्य करने का । हुवे आसक्त ही इस में भूलाया आत्म के धन को ॥ ६ ॥ जगत को ज़र की कीमत है, न कीमत देह मानव की । इसी खातिर गुमाई देह की, बस सारी आयुष्य को ॥ ७ ॥ कहे निर्धन से यह कोई, तुम्हे जो चाहिये जर तो तुम्हे मनमाना धन देवें, तुम देदो दोनों नेत्रों को करे मंजूर धन लेना, व वदले नैत्र दो देना । दरिद्री फिर भले होवे करे मंजूर नहीं इस को कहो धन देह से ज्यादा है, कि ज्यादा धन से देह है । अत्युत्तम अनमोल मानवदेह, मीली सत्य कार्य करने को ॥ १० ॥ भूला कर ध्येय यह उत्तम, हुवे लयलीन भोगों में । न इस में 'राज' तत्त्व है, समझ संक्षेप में इसको ॥ ९ ॥ ।। ११ ।। राजमल भंडारी - आगर (माळवा) ॥ १ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.533708
Book TitleJain Dharm Prakash 1944 Pustak 060 Ank 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Dharm Prasarak Sabha
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1944
Total Pages38
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Prakash, & India
File Size11 MB
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