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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीचतुर्विंशतिजिनस्तुति B+C+CNC#CANONCI & Grange २१ श्री ) अलौकिक कान्ति का, ( अनुसंधान श्रीचन्द्रप्रभु का चन्द्रसा मुख है अवलोकते ही दर्शकों को पाठ देता शान्ति का । होते सभी पावन सदा जो, सेव करते हर्ष से, मम क्यों न हो सम्यक्त्व निर्मल, आप के शुभ दर्श लें ? ॥ ८ ॥ प्रभु सेव्य हो कल्याणकारी, कल्पतरु सम धाम हो, जो पूजते है भाव से नर, कर्मदुःख आराम हो । सव जीव का उद्धार करते, मेट उनके पाप को. मम प्रार्थना है सुविधिजिनवर, दूर कर सन्ताप को अवलम्व जग में नाथ शीतल. है सदा मुझ को खरा, विश्वास आता है नहीं अब, अन्य देवों का जरा । सेवे चरण शुभ आप के नित, शीघ्र उनको तारते, इस बाल की फिर प्रार्थना को क्यों न आप विचारते ? ॥ १० ॥ लख श्रेष्ठ जिनगुण श्रेयकारी, दूर हो विष-भोग से, उस नाम से योगी सदा मुनि, ध्यान धरते योग से । रहते निरन्तर पदकमल में, इन्द्र सुर नर प्यार से, श्रेयांस के गुण निष्कलंकित हैं सभी संसार से कल्याणकारी देशना सुन, हर्ष से नर-वृन्द भी, निज जन्म को कृतकृत्य माने, देव देवी इन्द्र भी । हो द्वादशम जिनराज अद्भुत, ज्ञान के आवास में, होते न क्यों दुःख दूर मेरे, आप के सहबास में ? जगजन्तु को समदृष्टि से झट पार करते ज्ञान से, मन भावना की स्फूर्ति को नित, शुद्ध करते ध्यान से । हे विमलजिनवर ! विमल गुण जो नित्य भजते आप के, हैं टूटते बन्धन सभी, उनके कठिनतर पाप के सब सुख हेतु अनन्त जिनवर, धर्म के आधार हैं, त्रैलोक्य वन्दित पाद- पंकज, भक्त के शृंगार है । योगी रहे अति मन मन में. आप के सद् जाप से, लेने सभी आनन्द पद को, भक्ति की शुभ काम से || श्री विद्याविजयजी ॥ १३ ॥ For Private And Personal Use Only ॥ ९ ॥ ॥ ११ ॥ ॥ १२ ॥ ॥ १४ ॥ (२
SR No.533627
Book TitleJain Dharm Prakash 1937 Pustak 053 Ank 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Dharm Prasarak Sabha
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1937
Total Pages46
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Prakash, & India
File Size19 MB
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