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श्रीचनर्विशतिजिनस्तुति
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(हरिगीत ) शुभ देशनामृत दान करके, धर्म-युगलिक बार के. कर नीति की फिर रीति जगमें. धर्म शुभ विस्तार के । कैवल्य पद पाया सहज पट , शत्रुओं को मार के, जय आदि जिनवर मोक्षदाता, नाथ हो संसार के सव भव्य रटते अजित जिनवर, शुद्ध मन से नाम को, सुर इन्द्र नर नागेन्द्र लेवे, चरण-पद्म ललाम को । संसार-सागर तरण तारण, आप जग विश्राम हो, सवुद्धि मुझको क्यों न देत ?, ईश यर निष्काम हो ॥२॥ धर भाव निर्मल सौख्यदाता, विश्व के प्रतिपाल हो, मात्सर्य-मद रिपु-कर्म नाशक विशद गुण के लाल हो । मैंने किये हैं कर्म दुष्कर, आप उज्ज्वलता करो, हे नाथ-सम्भव ! क्यों न मेरी, भीति भव-भव की हरो? ॥ ३ ॥ तप दान अरु शुभ भाव निर्मल, शील आदिक धर्म को. जिनराज अभिनन्दन वताया, योगपथ के मर्म को । सत्साधु का ने श्राद्धजन का, तत्त्व है यह युक्ति का, मेरे लिये दुर्लभ बना क्यों, नाथ ! वह पथ मुक्तिका? ॥ ४ ॥ है निर्विकारी सुमति-जिनवर :, भक्ति पूर्वक जो नमे, सब पापराशी पूर्व भव की, नष्ट हो निज-गुण रमे । जगजीव वल्लभ पतित-पावन, शान्ति के विश्राम हो, हे नाथ ! नावा तार मेरी, आप तारक-धाम हो शुभ शीलव्रत से हीन हूँ मैं, दान तप जप भाव से, हे क्रोध 'माया मोह आदिक, कष्ट देते दाव से ।। मैं पामकर्मों से सदा दुःख, विश्व में पाता रहा, अव क्यों न मुझको पद्मप्रभुजी !, तारते दुःख से महा? ॥६॥ सुपार्श्व जिन सुर इन्द्र बन्दित, अधम पावनकार हो, आधार हो सब जीव के सब, भांति से अविकार हो । संसार के अघ-ताप से, जगजीव को तुम तारते, में भी अधम हुँ नाथ ! मुझको, क्यों न आप उगारते ? ॥ ७ ॥
-( या )
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