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પુસ્તક ૫૩ મુ’
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सम्यग्दशनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः रेन धर्मयद्याशी. {
અશાડ
आचार्य-गुण
है जीवनमुक्त ॥ ५ ॥
हिंसा नहीं किसी की करते, रखते सब पर दया महान् । राग-द्वेप जिन का न किसीसे, समझे जग को आत्म समान ॥ १ ॥ ब्रह्मचर्य नव गुप्ति सुपालक, इन्द्रियों पर जिनका अधिकार । ज्ञान ध्यान अनुशीलन पर जो, रखते है सम्यक्त्व विचार ॥ २ ॥ चार कपाय विजैता नित जो, किसी बात का जिन्हे न मान । सदा सर्वदा आदर पाते, बनते है जीनसें गुणवान ॥ ३ ॥ तीन गुप्ति के धारक संतत, जिन्हें सताता कभी न लोभ । दुःखमय होने पर भी जग यह, दे सकता है जिन्हे न क्षोभ ॥ ४ ॥ पंच महाव्रत के प्रतिपालक, पंच समिति से जो संयुक्त | शास्त्र नियम पर चल करके जो, बने हुए पंचाचारी सद्व्यवहारी करते हृदय वचन कायासे जीनने, दिये सत्य धर्मको फैलाते है, सत्य वातसे रखकर नेह । तीर्थकरके निर्मित पथ पर, जो न कभी करते संदेह ॥ ७ ॥ दुःखी देख औरोंको उनका होता मन नवनीत पुनीत । किन्तु कालसें भी अपने जो, नहीं कभी होते भयभीत ॥ ८ ॥ हर्ष नहीं जीनेका जीनको, नहीं कभी मरनेका खेद । जीवन और मृत्युका जीनने, जान लिया है सारा भेद ॥ ९ ॥ जो ऐसे पावन पदधारी, अनुपम है आचार्य महान् । पदपकंज में शीश झुकाता. उनके विद्याविजय निदान ॥ १० ॥ लक्ष्मणी जैन तीर्थः मुनि विद्याविजय
है
सभी
वि. स. १८८३
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जगका
અક ૪ થા
વીર્ સ, ૨૪૬૩
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उपकार |
कर्मों को जार ॥ ६ ॥
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