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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir મુનિઓને જેલમાં બેસવા સંબંધી લેખને પ્રત્યુત્તર ર૧૯ लस्स । मंतीहिं तो भणियओ नरनाहो देव मा कुणह एअं। मुयसु तवस्सिणी मेयं अवण्णवाओ जओ गुरुओ। किंच गुणीण अणत्थं जो मोहविमोहितो नरो कुणइ । सोणत्थ जलसमुहे अप्पाणं खिवइ धुवमेयं । तं मंतिं वयणमायण्णिऊण रोसेण भणइ नरनाहो । रे रे एवं सिरकं गंतूणं देहि नियपिउणो । तं सोउं तुहिक्का संजाया मंतिणो इमं हियए । काउं केण निसिद्धो जलही सीमं विलंघतो । तं च कुओवि नाऊण वइयरं निग्गओ नयरीओ मुरी । अणवरयं च गच्छंतो पत्तो सगकूलं नाम कूलं ॥ इत्यादि । पाठक ईदको मालूम रहे कि इतना होनेपरभी श्रीकालिकाचार्यजी महाराजने अपनी बहिनको पुनः संजममें स्थापन करी और आप आलोयण पडिकमण करके निज गच्छ की पालना करने लगे. पाठ-कालयसूरीहिं तओ सा भगिणी संजमे पुणो ठविया । आलोइय पडिकतो सूरीविसगं गणं वहइ ॥ शोचनेका स्थान है कि ऐसे युग प्रधान तीर्थकर समान पं. चम कालमें जिनको श्री सिद्धाचलनी नीर्थकी बराबर उपमा श्रीसीमंधर स्वामीने प्रदान करी-सक्कोसि तं दिआ मं पवंचसि । इअ सोउं सोअ हरी पंचरुखो थुणिअ भणइ मई अज्ज । सीमंधर पहु पुठो कोवि निगोए मुणइ भरहे । तत्थ तुम अप्पसमो वुत्तो पहुणा तहित्य तित्थदुगं । भणिअं तु जंगमं तं विमलगिरी थावरं चेव ॥-क्या शांतिविजय इस पदवीके लायकह ? जोकि श्री कालिकाचार्यजीका नाम लेकर अपना उत्सूत्र भाषण सिद्ध करना चाहताहै ? नहीं कदापि नहीं. बडाभारी अंतरहै. देखो ? पूोक्त गुणविशिष्ट भी पूर्वोक्त महात्माने पूर्वोक्त कार्य संबंधी आलोचना स्वीकार की, और न्यायरत्नतो प्रसक्ष निजकार्यकी पुष्टि करनेका उपाय करताहै. क्या भवभीरु सम्यग् दृष्टि गीतार्थ For Private And Personal Use Only
SR No.533225
Book TitleJain Dharm Prakash 1903 Pustak 019 Ank 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Dharm Prasarak Sabha
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1903
Total Pages52
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Prakash, & India
File Size4 MB
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