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મુનિઓને જેલમાં બેસવા સંબંધી લેખને પ્રત્યુત્તર ર૧૯ लस्स । मंतीहिं तो भणियओ नरनाहो देव मा कुणह एअं। मुयसु तवस्सिणी मेयं अवण्णवाओ जओ गुरुओ। किंच गुणीण अणत्थं जो मोहविमोहितो नरो कुणइ । सोणत्थ जलसमुहे अप्पाणं खिवइ धुवमेयं । तं मंतिं वयणमायण्णिऊण रोसेण भणइ नरनाहो । रे रे एवं सिरकं गंतूणं देहि नियपिउणो । तं सोउं तुहिक्का संजाया मंतिणो इमं हियए । काउं केण निसिद्धो जलही सीमं विलंघतो । तं च कुओवि नाऊण वइयरं निग्गओ नयरीओ मुरी । अणवरयं च गच्छंतो पत्तो सगकूलं नाम कूलं ॥ इत्यादि ।
पाठक ईदको मालूम रहे कि इतना होनेपरभी श्रीकालिकाचार्यजी महाराजने अपनी बहिनको पुनः संजममें स्थापन करी
और आप आलोयण पडिकमण करके निज गच्छ की पालना करने लगे. पाठ-कालयसूरीहिं तओ सा भगिणी संजमे पुणो ठविया । आलोइय पडिकतो सूरीविसगं गणं वहइ ॥
शोचनेका स्थान है कि ऐसे युग प्रधान तीर्थकर समान पं. चम कालमें जिनको श्री सिद्धाचलनी नीर्थकी बराबर उपमा श्रीसीमंधर स्वामीने प्रदान करी-सक्कोसि तं दिआ मं पवंचसि । इअ सोउं सोअ हरी पंचरुखो थुणिअ भणइ मई अज्ज । सीमंधर पहु पुठो कोवि निगोए मुणइ भरहे । तत्थ तुम अप्पसमो वुत्तो पहुणा तहित्य तित्थदुगं । भणिअं तु जंगमं तं विमलगिरी थावरं चेव ॥-क्या शांतिविजय इस पदवीके लायकह ? जोकि श्री कालिकाचार्यजीका नाम लेकर अपना उत्सूत्र भाषण सिद्ध करना चाहताहै ? नहीं कदापि नहीं. बडाभारी अंतरहै. देखो ? पूोक्त गुणविशिष्ट भी पूर्वोक्त महात्माने पूर्वोक्त कार्य संबंधी आलोचना स्वीकार की, और न्यायरत्नतो प्रसक्ष निजकार्यकी पुष्टि करनेका उपाय करताहै. क्या भवभीरु सम्यग् दृष्टि गीतार्थ
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