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[आत्मानंद प्रकाश
१०००, श्री माणेकचंद ढागा सुरतगढ १०००, श्री बदरीदास शोभनलाल बरड १०००, श्री सरदारीलाल शेखरचंद मुरादाबाद
लुधीयाना १०००, श्री निमळकुमार मुरादाबाद १०००, श्री पुरणचंन्द्र श्रीपाळ बरड लुधीयाना १०००, श्री रामपाळ चढढा जलंधर १००० श्री रक्षाबेन बालचंद शाह बोम्बे १०००, श्री कस्तुरीलाल वचनलाल जैन १००० श्री गणेशमलजी वी. संघवी बोम्बे
मालेलकोटड़ा पंजाब १.०० श्री बालचंद लालचद रांका । १०००, श्री शीवचंद निजलाल कोचर
(थाणा) भीवंडी अग्रतसर १.०० श्री धरमचंद जैन पट्टीवाळा दिल्ही १०.०, श्री फकीरचंद श्रीपाळ
आग्रा
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खाद्य संयम
भोजन का संयम और विवेक न हो तो न स्वाध्याय हो सकता है, न ध्यान, न सेवा हो सकती है, न कोई अन्य बड़ा काम । खाद्य संघम के बिना मानसिक एकाग्रता की कल्पना ही नहीं हो सकती । जहां तक में सोच पाया हूँ, वैज्ञानिक लोगों को इसकी साधना विशेष रूप से करनी होती है ।
मनुष्य और पशु के बीच की एक भेदरेखा है विवेक । विवेक किसे कहा जाय ? भोजन के सम्बन्ध में रिसर्च की जाए तो संभव है मनुष्य की अपेक्षा पशु-पक्षी का विवेक अधिक जागृत मिले । पशु-पक्षी भूख होने पर ही भोजन करते हैं, जब कि मनुष्य पेट भरा होने पर भी स्वाद के लिए खाता रहता है । अनेक पशु और प्रायः सभी पक्षी रात को भोजन नहीं करते होंगे । क्योंकि वे प्राकृतिक जीवन जीते हैं । पर मनुष्य के लिए दिन-रात की कोई बाधा नहीं हैं ।
खाद्य संयम के सिद्धान्त को अनेक कोणों से समझा जाए, द्रव्य, धोत्र, काल और भाव के आधार पर समझा जाए तो भोजन संबंधी अनेक समस्याओं का समाधान हो सकता हैं । जैसे-जैसे समय बदल रहा हैं, खाद्य-संकट बढता जा रहा है । आज मनुष्य की सारी चिंता अर्थ पर केन्द्रित है । खाद्य पर मंडरानेवाले संकट से उसका कोई सरोकार नहीं हैं । वह जैंसा भोजन कर रहा है, उससे उसके मन, स्वास्थ्य और व्यवहार पर कैसा प्रभाब हो रहा है, इन बातों को ध्यान में रखकर भोजन शैली को बदलने से ही समाधान का सत्र हाथ लग पायेगा ।
-आचार्य श्री तुलसी
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