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વર્તમાન સમાચાર.
महानुभाव ! पंचम पारा के प्रारम्भ में कई शताब्दि तक जैनधर्म का दपिक झगमगता था पर क्रमशः वह बुझ गया था और सारा साहित्य व सारा झान एकवार तो लोपसा हो गया था उसके पुनरुद्धार के लिये भगीरथ प्रयत्न की आवश्यक्ता है। पर सांसारिक झंझटो में फंसे हुए लोगों को इतना समय कहाँ ? आपने सब स्वार्थों का त्याग कर पुरातत्व की खोज में जो बलिदान किया है वह सचमुच में प्रशंसनीय व आदर्श है । जिस अक्लान्त परिश्रम से राजगृह, जैसलमेर मथुरादि के खंडहरों में जाकर आपने प्रशस्तियां, शीलालेख व जैन शासन कालीन सिकों का संग्रह किया है वह अनुपम है। दुख है भाप के सुकृत्यों का मूल्य जितना हम भारतवासी जैन व जैनधर्म में दिलचस्पी लेनेवाले अजैन नहीं समझ सके हैं उससे कहीं अधिक विदेशियोंने उसका महत्व समझा है। जहां कहीं भी उन्हें किसी प्रकार की शंका होती है तो वे अपने समाधान के हेतु आप को कष्ट देते हैं। हम अधिक क्या कहें जैन के पुरातत्व की खोज में आप एक त्याग की मूर्ति है । इस रंग में आप ऐसे रंगे गये है कि चौवीसों घण्टे आपने इसी काम में लगा रखे हैं । आखों की ज्योति तक आपने इस में खो दी थी फिर भी आपने उठाये हूए कार्य को छोड़ा नहीं वरन् दूसरों को बैठा २ कर उस कार्य को जारी रखा । बहुत प्रसन्नता की बात है कि आपने अपनी चक्षु ज्योति को पुनप्राप्त किया है और आप फिर अपने कार्य को जोर से चला रहे हैं।
महोदय ! यह कहना अनावश्यक है कि पुरातत्व का सम्यक् दिग्दर्शन उन्हीं के लिये जरूरी है जो अपना स्वरूप भूल दूसरों की सम्पद् देख उस में लुब्ध होते हैं। जिस जाति व समाज में अपने पूर्वजों की कहानी बाल बच्चों की तो कहें ही क्या बुड्ढे भी नहीं जानते, उस के लिये श्राप के सदृश अक्लान्त परिश्रमी दृढ अध्यवसायी एवं पुरातत्व के अनुसन्धित्सु की बड़ी भारी आवश्यक्ता है । आज अपनी समाज अपने गौरवमय अतीत को याद तक नहीं करती। जैन शिक्षा, जैन साहित्य, जैन दर्शन, जैन कला, जैन भाषा, जैन भाव, आज विस्मृति के अन्धकार में लुप्त से हैं। जो भावुक लोगों की दृष्टि पुनः जैन वैशिष्ठ की तरफ खीचने के लिये पुरातत्व का विश्लेशन करके समाज का बडा भारी काम कर रहे हैं उन्हें जितना अभिनन्दित किया जाय वह थोड़ा है।
हम आशा करते हैं कि हमारे देश के युवक भी भाप की इस खोज का
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