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दर्शन- स्तुति
अति पुण्य उदय मम आया, प्रभु तुमरा दर्शन पाया, अब तक तुमको बिन जाने, दुख पाये निज गुण हाने । पाये अनंते दुःख अब तक, जगत को निज जानकर, सर्वज्ञ भाषित जगत हितकर, धर्म नहिं पहिचान कर ।
भव बंधकारक सुखप्रहारक, विषय में सुख मानकर, निज पर विवेचक ज्ञानमय, सुखनिधि-सुधा नहिं पानकर ।
तव पद मम उर में आये, लखि कुमति विमोह पलाये, निज ज्ञान कला उर जागी, रूचि पूण स्वहित में लागी । रूचि लगी हित में आत्म के, सतसंग में अब मन लगा,
मन में हुई अब भावना, तव भक्ति में जाऊँ रँगा । प्रिय वचन की हो टेव, गुणिगण गान में ही चित पगै, शुभ शास्त्र का नित हो मनन, मन दोष वादनतें भगै ।
कब समता उर में लाकर, द्वादश अनुप्रेक्षा भाकर, ममतामय भूत भगाकर, मुनिव्रत धारूँ वन जाकर । धरकर दिगम्बर रूप कब, अठ-बीस गुण पालन करूँ, दो-बीस परिषह सह सदा, शुभ धर्म दस धारन करूँ । तप तप॑ द्वादश विधि सुखद नित, बंध आस्त्रव परिहरूँ,
अरू रोकि नूतन कर्म संचित, कर्म रिपुकों निर्जरूँ। कब धन्य सुअवसर पाऊँ, जब निज में ही रम जाऊँ,
कर्तादिक भेद मिटाऊँ, रागादिक दूर भगाऊँ। कर दूर रागादिक निरन्तर, आत्म को निर्मल करूँ, बल ज्ञान दर्शन सुख अतुल, लहि चरित क्षायिक आचरूँ ।
आनन्दकन्द जिनेन्द्र बन, उपदेश को नित उच्चरूँ, आवै 'अमर' कब सुखद दिन, जब दुःखद भवसागर तरूँ ।
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