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________________ JAINA CONVENTION 2011 "Live and Help Live" पर्यावरण में विद्यमान अन्य जीव और अजीव तत्वों भावना यहाँ तक बढ़ी है की हम पूजा और पूजा की से रिश्ते बनाने पड़ते हैं । पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, विधियों को ही धर्म समझने लगे तथा जो लोग पूजा आकाश, वनस्पति, पशु, पक्षी, मनुष्य और अन्य प्राणियों या पूजा की विधियों का विरोध या बहिष्कार करते हैं के साथ-साथ भौतिक पदार्थों का या तो सहयोग लेना उन्हें अधर्मी या धर्मविरोधी मानने लगे । मंदिर जा पड़ता है या उनके विरोध का सामना करना पड़ता है। कर पूजा करनेवाले ,मस्जिद जाकर नमाज़ पढने वाले स्वयं के हित या लक्ष्य के प्रसंग में वह इने अनकल या गिरजाघर जा कर प्रार्थना करनेवाले या धार्मिक या प्रतिकूल परिस्थितियों के रूप में देखता है। मनुष्य संस्थानो की सदस्यता लेने वाले धार्मिक माने जाते हैं का मन और मस्तिष्क उनके आठ समायोजन की मगर जो इनसे अलग रहता है उसे अधर्मी कहा जाता अनेक विधियों का सुझाव देता है । इनमे से कुछ के है। मगर बात इससे भी ज्यादा बिगड़ रही है। जो सकारात्मक और कुछ के नकारात्मक प्रभाव होते हैं। आपकी मान्यता के अनुरूप पूजा नहीं करते या अनुभव बतलाता है कि सकारात्मक प्रभाव वालों को जयजयकार नहीं करते वे विधर्मी होकर आपके शत्रु अपनाना चाहिए और नकारात्मक प्रभाव वालों को मने जाते हैं। इस्लाम मानने वालों के लिए हिन्द और टालना चाहिए। इसाई विधर्मी और शत्रु हैं। इससे भी आगे मंदिर धर्म और अधर्म मंदिर,गिरिजाघर गिरिजाघर ,शिया सन्नी और ऋषि सकारात्मक प्रभाव वाले समायोजन को धर्म और ऋषि में भेद हो रहा है। सांप्रदायिक संघर्ष बढ़ रहा प्रभाव वाले समायोजन को अधर्म मन है। पूजा पूजा में भेद हो रहा है। विधि विधि और गई है। उदाहरण के लिए प्रेम संघठन में भेद हो रहा है तथा पारस्परिक प्रतियोगिता कारात्मक और घृणा या शत्रुता दवेष ईर्ष्या बढ़ रही है। इस कारण लोग धर्म का मूल नकारात्मक होते हैं। धर्मं प्रेम और मित्रता का सुझाव स्वरुप भूलते जा रहे हैं। देता है और घृणा या शत्रुता का निषेध करता है। आराधना विधियों में भिन्नता जीवों की रक्षा और लालन-पालन का सुझाव धर्म है जैन धर्म के अनुयायियों पर भी यह बात पूरी तरह और जीवों की हिंसा या जीवों को कष्ट देना अधर्म लागु होती है | आत्मा पर विजय पाने के लिए जोर माना जाता है। मानवीय उत्कर्ष सभी जीवों के प्रति देनेवाला और संयम शिखलानेवाला यह सार्वकालिक अहिंसा, मैत्री तथा क्षमाभाव में निहित है | मनुष्यों की और सार्वभौमिक मानव धर्मं आराधना विधियों में आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक होना धर्मं और भिन्नता के आधार पर अनेक सम्प्रदायों और वर्गों में पूर्ति में अवरोध खड़े करना अधर्म है । मनुष्यों का विभाजित होकर अलग अलग पहचान बनाने का सन्मान करना धर्मं और अपमान करना अधर्म है। प्रयास कर रहा है | भगवान आदिनाथ से भगवान् सम्पति के अधिकार को मान्य कर उसका उपयोग महावीर तक की परंपरा और सत्य, अहिंसा, अचौर्य, करने देना धर्म है और सम्पतिके स्वामी से उसका ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह जैसे वृतों को सर्वोपरि मान ज्ञान, अपहरण करना या उसे उपयोग नहीं करने देना अधर्म दर्शन, चारित्र्य, तप, अनेकांत, समता के मार्ग पर आगे है। धर्म और अधर्म का यह भेद जिन महापुरुषों ने बढ़ने को सभी स्वीकार करते हैं । फिर भी वे अनेक हमें समझाया उन्हें हम पैगम्बर, अवतार, प्रवर्तक, हिस्सों में बन कोई अपने को दिगंबर कहता तीर्थंकर या ऋषि मानकर पूजते आये हैं। उनके प्रति है तो कोई श्वेताम्बर । श्वेताम्बर होकर भी वह हमारी आस्था, श्रद्धा ,निष्ठां, भक्ति या समर्पण की मंदिरमार्गी , स्थानकवासी, साधुमार्गी, तेरापंथी या 205
SR No.527533
Book TitleJAINA Convention 2011 07 Houston TX
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFederation of JAINA
PublisherUSA Federation of JAINA
Publication Year2011
Total Pages238
LanguageEnglish
ClassificationMagazine, USA_Convention JAINA, & USA
File Size26 MB
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