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________________ JA INI 2005 विश्व के अन्य धर्मों में जहाँ व्यक्ति विशेष की महत्ता का सर्वाधिक स्वीकार हुआ है वहाँ जैन धर्म में स्वय व्यक्ति की ही महत्ता और उसके कर्मों या कृत्यों काही स्वकार किया गया है। Jain Educa1 94 nternational 2010_03 ܀܀܀܀܀ जैन धर्म : वैज्ञानिक धर्म इस विषय की गहराई में जाने से पूर्व, हम धर्म और विज्ञान के सामान्य भाव या अर्थ को समझें। वैसे विशाल भावना से समझें तो धर्म और विज्ञान परस्पर पर्यायवाची ही हैं। धर्म का अर्थ है वस्तु के सीधे या वास्तविक स्वरूप को जानना या समझना । विज्ञान का भी भाग है कि वस्तु के विशेष ज्ञान को प्राप्त करना। उसके मूल को जानना । इन परिभाषाओं को यों रखा जा सकता है कि धर्म वह विज्ञान है जो वस्तु के तथ्य की तह में जाकर उसकी वास्तविक स्थिति को प्रस्तुत करता है। इस सत्य की खोज और परीक्षण में कहीं भी मात्र कल्पित बातों का स्थान नहीं होता। डा शेखरचन्द्र जैन, अहमदाबाद प्रधान संपादक- तीर्थकर वाणी विश्व के अन्य धर्मों में जहाँ व्यक्ति विशेष की महत्ता का सर्वाधिक स्वीकार हुआ है वहाँ जैन धर्म में स्वय व्यक्ति की ही महत्ता और उसके कर्मों या कृत्यों का ही स्वीकार किया गया है। जहाँ अन्य धर्मो में सृष्टि का - निर्माता, नियंता और अंतकर्ता कोई भगवान विशेष है वहाँ जैन धर्म में ऐसा कोई निर्माता, नियंता आदि नहीं है, अपितु व्यक्ति ही अपने कर्मों से इन ऊँचाईयों को पाकर स्वयं का कर्त्ता नियंता या संहारक बनता है। जहाँ अन्य धर्मो में कोई भगवान विशेष है, वहाँ जैन धर्म में प्रत्येक जीव में भगवान अर्थात मोक्ष प्राप्त की शक्ति निहित है। इसी प्रकार संसार का परिवर्धन-परिवर्तन भी किसीकी मरजी का कारण नहीं है अपितु उत्पाद, न्याय, भीष्म के सिद्धांत पर निरंतर होने वाली प्रक्रिया है । नये का निर्माण, पुरातन का विलय एक परंपरा है परन्तु मूल तत्व का यथावत रहना उसका गुण भी है। इन तीनों बातों (1) कर्मवाद (2) अवतारवाद का निषेध और (3) संसार का निर्माण - अरण स्वयं प्रक्रिया मानने से इसकी वैज्ञानिकता या वास्तविक खोज का प्रमाण सिद्ध होता है। जहाँ अन्य धर्म मात्र भगवान विशेष को प्रसन्न करने में ही भक्ति की इतिश्री मानते हैं- वहाँ जैन धर्म अपने द्वारा किए गए अशुभ कर्मों को तपादि द्वारा नष्ट करके आत्मा की परम उज्जवलता को ही भक्ति या आराधना मानता है। जहाँ अन्य धर्मो में भगवान नामक व्यक्ति का चारित्र कथनी और करनी में अन्तर प्राप्त होता है- वे लीला करने के अधिकारी होते हैं- उन्हें कोई नियम और बंधन बाँध नहीं सकते। जब कि जैन धर्म स्पष्ट मानता है कि चराचर का प्राणि मात्र समान है, सबकी आत्मा समान है तो यह भेदभाव कैसा और क्यों ? जैन धर्म में तो तीर्थकर प्रकृति का ग्रंथ बाँधने वाला भी यदि कोई गलत काम करता है तो उसे भी वही फल या सजा भुगतनी पड़ती है, जो अन्य एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय के जीव को भोगनी पड़ती है। वहाँ कथनी और करनी का अद्वैत भाव है। Extending Jain Heritage in Western Environment जब जैन धर्म सप्त नव तत्वों की बात करता है तो उसकी यात्रा का प्रारम्भ ही शून्य से होकर मुक्ति तक पहुँचना है। जैन धर्म ने पूरे विश्व को जीव- अजीव दो भागों में विभाजित कर दिया है। जीव के अन्तर्गत एकेन्द्रिय वनस्पति से लेकर, पशु-पक्षी मानव तक सभी का समावेश किया है। जैन धर्म पृथ्वी, जल, वायु अग्नि एवं वनस्पति में जीव की मान्यता से अभिपेत है। इसीलिए वह एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के किसी भी जीव की हानि करने या सताने में हिंसा मानता है। यही -जीओ और जीने दो का सिद्धांत जैन धर्म का प्राण है। जहाँ अन्य धर्मों में हिंसादी को भी धर्म का अंग माना गया, वहाँ जैन धर्म में बदन और मन को दुखाना भी हिंसा मान कर सबके प्रति करुणा का अभिगम प्रदान किया। इस अहिंसा और पंचास्तिकायों में जीव की भावना ने पर्यावरण की रक्षा में For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527527
Book TitleJAINA Convention 2005 07 JCNC
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFederation of JAINA
PublisherUSA Federation of JAINA
Publication Year2005
Total Pages204
LanguageEnglish
ClassificationMagazine, USA_Convention JAINA, & USA
File Size10 MB
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