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शाकाहार में परिगणित करते हैं तथा अनेक तर्क (कुतर्क) प्रस्तुत कर देते हैं। अण्डा न भूमि से उपजता है और न किसी वृक्ष का फल ही है। आश्चर्य होता है जब स्वयं सात्विक आहार लेने वाली शिक्षित महिलाएं अपने पुत्रों को अण्डों को पौष्टिक मानकर खिलाती हैं।
इस युग का एक अभिशाप यह है कि अनेक सौंदर्य प्रसाधनों में तथा अनेक एलोपेथिक औषधियों में भी मांसाहार के तत्व होते हैं। लगभग सभी आयरन टानिकों में पशुओं से प्राप्त हीमोग्लोबिन का प्रयोग होता है। कैप्सूल का आवरण बनाने के लिए पशुओं से प्राप्त होने वाले जिलेटिन का प्रयोग होता है। विटामिन-बी कांप्लेक्स का इंजेक्सन पशुओं के गुर्दे के रस से बनाया जाता है। इसका कोई वानस्पतिक विकल्प नहीं है । मानव देह में रक्त के थक्के को घोलने के लिए हिपैरिन का प्रयोग होता है जो पशुओं के फेफडे और आंतों से निर्मित होता है। आपरेशन के समय मानव देह के भीतर घुलनशील टांके सूअर की आंतों से बनते हैं तथा इसका कोई वानस्पतिक या अन्य कृत्रिम विकल्प नही बना है। अनेक रोगों से रक्षा के लिए टीके पशुओं के रक्त से ही बनाए जाते हैं। होम्योपैथी में भी अनेक औषधियाँ कीडे मकोड़ों से बनाई जाती हैं। उदाहरणार्थं वास्प ततैया से वैस्पा बनती है तथा चींटी से फार्मिका औषधि का निर्माण होता है। आयुर्वेदिक चिकित्सा पध्दति में औषधि निर्माण के लिए पशुवध निषिध्द है तथा स्वाभाविक मृत्यु होने के पश्चात् अंगों का उपयोग स्वीकार्य होता है। उदाहरणतः मृग से उपलब्ध कस्तूरी औषधि के रूप में प्रयुक्त होती है। यूनानी चिकित्सा पध्दति में रक्त आदि के प्रयोग से अनेक औषधियों का निर्माण होता है। यह सर्व विदित है कि जीवित बानरों, मूषकों इत्यादि पर क्रूरतापूर्वक अनेक प्रकार के प्रयोग किए जाते हैं तथा उन छात्रों से भी मेंढक, खरगोश आदि पर अनावश्यक प्रयोग कराए जाते हैं जो कभी चिकित्सा को आजीविका का साधन नहीं बनाते । ये सब बिन्दु अहिंसावादियों के लिए विचारणीय हैं।
संक्षेप में करुणाभाव अहिंसा का सारतत्व है तथा वही मानवता का आधार है । आज का मानव नितान्त बर्हिमुखी और भौतिकवादी होकर भटक गया है तथा दिखावट, बनावट, सजावट को अपनाकर यथार्थ से दूर हो गया है और तनाव, भय, चिंता आदि से ग्रस्त होकर दुःखी है। उसे अंतर्मुखी हो कर, अपने भीतर झांक कर, आत्मतत्व का संदर्शन करके आत्मा से ही पथप्रदशर्न एवं प्रेरणा प्राप्त करनी चाहिए तथा अपने वैचारिक एवं आध्यात्मिक स्तर के अनुसार, जनहित एवं आत्महित मे जो भी उचित प्रतीत हो, वही करना चाहिए। मनुष्य के कर्म के पृष्ठ में उसकी प्रेरक भावना कर्म की उत्तमत्ता अथवा अधमता का निर्णय करती है।
श्री शिवानन्द शर्मा सेवा निव्रत प्रधानाचार्य । राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित एवं 30 प्र0 हिन्दी संस्थान से साहित्य भूषण की उपाधि से समलंकृत। लेखनः अनेक धार्मिक पुस्तके एवं लेख ।
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