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अथवा धर्म का सर्वस्व एवं सार घोषित किया। हिंसक पशु उनके समीप आकर अपनी स्वाभिक हिंसकवृति का विसर्जन कर देते थे।
__ महर्षि पतन्जलि के अष्टाग्ड़ीण योगदर्शन में सर्वप्रथम यम हैं और उन में भी सर्वप्रथम अहिंसा है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय (अचौर्य), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यम हैं। इस भौतिकवादी युग में नए संदर्भो के परिप्रेक्ष्य में इन की पुनव्यख्यिा होने की आवश्यकता है। यमों के साथ नियम भी जुड़े हुए हैं। शौच (पवित्रता, शुध्दि), सतोष, तप, स्वाध्याय, ईशप्रणिधान नियम हैं। वर्तमान आपाधापी और लूटखसोट के युग में इन के अर्थ ही परिवर्तित हो गए हैं। कबीर ने कहा था - सांई इतनो दीजिओ, जा में कुटुम्ब समाय,मै भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाए। अब मानों विपरीत दृष्टि ही प्रचलित है - साई इतनो दीजिओ जो घर में न समाय, मै तो भूखा न रहूं, जग भूखा मर जाए। महर्षि पतन्जलि ने अहिंसा की महिमा का गान करते हुए कहा - अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः। जिस महापुरुष में अहिंसा प्रतिष्ठित हो जाती है, उस के समीप आने वाला प्राणी वैरभाव (हिंसाभाव) त्याग देता हैं।
अहिंसा दर्शन मनुष्य को परम उदार हो कर तथा परस्पर मिलजुल कर जीने की कला सिखाता है। परस्परं भावयन्तम् (गीता) । सह - अस्तित्व का विकल्प सर्वनाश है। उदारचेता मनुष्यों के लिए सारा विश्व एक कुटुम्ब है। अयं निजः परोवेतिगणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् । उदार और व्यापक होने में ही व्यक्ति और समाज का सुख (कल्याण) है, अनुदार और संकीर्ण होने में व्यक्ति और समाज का दुःख (अहित, विध्वंस) है। धान्दोग्य उपनिषद् का मंत्र है - भूभैव सुखं नाल्पे सखमस्ति । भूमा व्यापकता) में सुख है, अल्प (संकीर्णता) में सुख नहीं है। दानाय अयंते - देने के लिए ही धन एकत्रित करना चाहिए। प्रकृति निरन्तर प्रकाश, वायु, जल, आदि का विर्सजन करके प्राणियों के जीवन की रक्षा करती है। मेघ अपने जल, वृक्ष अपने फल को और महापुरुष अपने सबकुछ को लुटाते ही रहते हैं। देने मे कमी नहीं आती। नीयत (भावना) के खोटी होने से कमी आती है। कबीर ने कहा - ऋतु वसन्त याचकभया, हरषि दिए दुमपात, ताते नवपल्लव भया, दिया दूर नहिं जात। अहिंसा दैवी सम्पदा है। श्रीकृष्ण अहिंसा को दैवी सम्पद् कहते हैं गीता)। महात्मा गांधी ने राजनीति के क्षेत्र में अहिंसा का सफल प्रयोग करके सारे संसार को एक नया मार्ग दिखाया। अहिंसा के प्रयोग में अनेक सम्भावनाए छिपी पडी हैं। अहिंसा मात्र हिंसा न करना नहीं है। अहिंसा का संस्कामक रूप प्रेम होता है। प्रेम एक दिव्य तत्व होता है।
अहिंसाव्रतधारी के लिए आहारशुध्दि पर ध्यान देना आवश्यक होता है। धान्दोग्य उपनिषद में कहा गया है - आहारशुध्दी सत्वशुद्धिः सत्वशुधदौ धुवास्मृतिः स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः । आहार शुद्धि से बुध्दि शुद्ध होती है तथा स्मृति ध्रुव हो जाती है तथा अन्त में ग्रन्थियों का विप्रमोक्ष हो जाता है अर्थात ग्रन्थियों से मुक्ति हो जाती है। अनेक शिक्षित और सभ्य लोग मांस भक्षण को सामाजिक प्रतिष्ठा की पहचान (स्टेटस सिम्बल) मानते हैं तथा अण्डे को शक्तिप्रद मानकर
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