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________________ जैन धर्म में सामाजिक चेतना - डॉ. शुगन चन्द जैन ये चार पंक्तियाँ व पूरी 'मेरी भावना' प्रार्थना जिसका प्रायः सभी जैन प्रतिदिन पाठ करते हैं हम जैनों की सामाजिक उत्तरदायित्वता का सूचक है। इसी प्रकार अरिहन्त के तीन गुणों में हितोपदेश' को भी एक प्रमुख गुण कहा गया है। इस प्रकार हम देखते हैं की जैन, जो अहिंसा के पुजारी व आत्मकल्याण के पथ पर अग्रसर रहते हैं वे साथ-साथ अपने सामाजिक दायित्व को भी निभाने में तप्तर रहते हैं। रहे भावना ऐसी मेरी सरल सत्य व्यवहार करूँ बने जहां तक इस जीवन में औरों का उपकार करूँ मैत्री भाव जगत में मेरा सब जीवों से नित्य रहे दीन दुःखी जीवों पर मेरे उर से करुणा स्रोत बहे "मेरी भावना" बीसवीं शताब्दी के एक प्रमुख जैनाचार्य तुलसी कहते है “यदि पुरुष स्वयं सुधरेगा तो उसका परिवार सुधरेगा, यदि परिवार सुधरेगा तो समाज सुधरेगा, यदि समाज सुधरेगा तो देश और फिर विश्व सुधरेगा"। इस प्रकार जैन धर्म में अपने को सुधारने पर, अर्थात् आत्मिक व सामाजिक बुराइयों से दूर रहने को प्राथमिकता दी गई है। इसीलिए जैन धर्म के तीन स्तम्भ अर्थात् अहिंसा, अपरिग्रह व अनेकान्त हमारी सामाजिक दृष्टि के भी प्रतीक हैं। भगवान महावीर ने चतुर्विध संघ की स्थापना (साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका) धर्म व समाज के तादात्म्य की दृष्टि से ही की है। पांचों व्रतों (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह ) की व्याख्या महाव्रत व अणुव्रतों में भी इसी धार्मिक-सामाजिक सन्तुलन को स्थिर रखने के लिए की गई है। अणुव्रतों में परिमाण ( यथाशक्ति सीमा बांधना ) शब्द पांचों व्रतों के साथ जोड़कर हम साधारण व्यक्तियों को समाज में रहते हुए हमें अपने हर कार्य में धर्म के मापदण्ड से करणीय व अकरणीय द्वारा जांच कर कार्य करने का आदेश है। पूर्ण त्याग (महाव्रत ) साधु-साध्वी से अपेक्षित है। आगे चलकर आचार्य उमा स्वामी व अमृतचन्द्र ने 'अहिंसा परमो धर्म,' 'जीओ और जीने दो' व 'परस्परोपपद्ये जीवानाम्' के जैन प्रतीक मापदण्डों को स्थापित किया। आइये हम देखें भगवान महावीर ने भी किस प्रकार अपनी आध्यात्मिक दृष्टि में भी सदैव सामाजिक कुरीतियों को दूर हटाने का उद्यम किया। 1. अहिंसा आचारांग में कहा गया कि किसी भी जीव को पीड़ा नहीं देनी चाहिए व न ही उनका हनन करना चाहिए। प्रश्न व्याकरण में अहिंसा के 64 अपरनाम जैसे करुणा, मैत्री, दया, क्षमा, अभय आदि कह कर अहिंसा के पालन का मार्ग दर्शाया। 34 2. अपरिग्रह महावीर जानते थे कि परिग्रह सारे संसारिक कलह की जड़ है। इसलिये उन्होनें श्रावकों से कहा “आप अपने वैभव की सीमा बांधिये व शेष को सामाजिक व धार्मिक कार्यों में लगाइये”। भगवान ऋषभदेव ने भी अक्षय तृतीया पर दान को धर्म के रूप में स्थापित किया। सूत्रकृतांग में भगवान महावीर ने दुःख को बन्धन (अथात् परिग्रह) कहकर उसके निवारण पर जोर दिया। Jain Education International 3. अनेकान्त महावीर जानते थे कि सत्य अनन्त है। हम सब अपने को उचित कहकर दूसरों को गलत कहते हैं व इस प्रकार आपसी मतभेद व मन मुटाव शुरू करते हैं। इसीलिये भगवान ने सारे आध्यात्मिक व सामाजिक समस्याओं का समाधान सदैव अनेकों दृष्टियों से किया। जैसे लोक अनादि, अनन्त भी है, एक भी और सीमित भी है। यही दृष्टि अनेकान्त व नय की अवधारणा बनी। अनेकान्त के मुख्य स्तम्भ 'सहिष्णुता, विपरीत अस्तित्व, सम्नवय' हमारे सारे आर्थिक, राजनैतिक व अन्य समस्याओं के समाधान की विचारधारा बन सकते हैं। इन तीनों विचारधाराओं पर आधारित कुछ उदाहरण हम भगवान महावीर के जीवन में देखते है। 1. स्त्री उत्थान: चन्दना दासी से आहार लेना जिससे दासी प्रथा समाप्त हुई। फिर चर्तविध संघ बनाकर महिलाओं को धर्म व ज्ञान प्राप्ति का मार्ग प्रतिष्ठित किया। 2. कर्म सिध्दान्तः इसके द्वारा अपने “अच्छे व बुरे कार्यों के लिये स्वयं हमें जिम्मेदार बनाया व उसके फल भोगने वाला कहा। इस प्रकार उन्होंने हमारे अन्तर्मनों में जागरूकता पैदा की ताकि हम बुराइयों से बचें व अच्छाइयों पर चलें।" 3. पुरुष - स्त्री सम्बन्धों को अनाचार से बचाने के लिये पंचायाम धर्म की स्थापना की। इसी प्रकार सामायिक चरित्र के साथ छेदोपस्थापनीय चरित्र (यानि दोष लगने पर आलोचना कर पुनः सम्यक चरित्र के मार्ग में प्रतिष्ठित होना) की स्थापना की। 4. जाति पर आधारित भेद भाव दूर करने के लिये, सब जीवों को अपने उत्थान के लिये समान माना। उनके सारे गणधर ब्राह्ममण थे व शूलपानिक आदि का विवरण भी शास्त्रों में मिलता है। समन्त भद्र ने महावीर के धर्म को सर्वोदय तीर्थ कहा। वर्तमान आज भारत में लगभग 50 लाख व विदेशों में लगभग 1,50,000 जैन हैं। इतनी छोटी संख्या होने के बावजूद जैनों का सामाजिक अवदान बहुत अधिक है। यह इसलिये है कि जैन श्रम, ज्ञान, अहिंसा व तप के पुजारी हैं। इसीलिये हम पाते है कि जैन समाज शिक्षित, सम्पन्न व अहिंसक समाज है जो आज के त्रस्त विश्व के लिये एक आदर्श समाज का रूप है। कुछ उदाहरण निम्न हैं: 4,500 से ज्यादा स्कूल व कालेज़ जैनों द्वारा स्थापित हैं। 1. 2. में जैनों का समाज को अवदान युग हजारों अनाथाश्रम, महिलाश्रम, अस्पताल, औषधालय व धर्मशालाएँ जैनों द्वारा स्थापित व संचालित हैं। 3. कला क्षेत्र में रणकपुर, दिलवाड़ा, गोपाचल श्रवणबेलगोल, देवगढ़, उदयगिरि, खंडगिरि, एलोरा भारत के अतुलनीय कला क्षेत्र हैं। 4. प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, कन्नड, तमिल, महाराष्ट्र, गुजराती व हिन्दी में विशाल जैन साहित्य प्राप्त होता है। कन्नड को जैन भाषा व कुरल जैन शास्त्र को तमिल की बाईबल कहा जाता है। 5. दस हजार से ज्यादा जैन मन्दिर। दिल्ली में 500 व जयपुर में 350 से अधिक जैन मन्दिर हैं। हर मन्दिर समाज की एक स्वतंत्र इकाई के केन्द्र का कार्य करता है। 6. स्वास्थ्य सेवा में जयपुर के महावीर विकलांग सहायता केन्द्र, महावीर कैंसर अस्पताल, दुर्लभ जी अस्पताल, पक्षी अस्पताल, दिल्ली व सैकड़ों For Private & Personal Use Only Jain Digest Winter 2009 www.jainelibrary.org
SR No.527112
Book TitleJain Digest 2009 03 Vol 28 No 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFederation of JAINA
PublisherUSA Federation of JAINA
Publication Year2009
Total Pages52
LanguageEnglish
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size12 MB
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