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________________ पुद्गल वचनरूप परिणत होते हैं तथा द्रव्यवाक् पौद्गलिक होने से श्रोत्रेन्द्रिय का विषय बनता है। वचन पौद्गलिक होने पर भी अन्य इन्द्रियों का विषय नहीं बनता क्योंकि भावेन्द्रिय तथा द्रव्येन्द्रिय की आन्तरिक व बाह्य रचना के अनुसार, केवल कर्णेन्द्रिय द्वारा ही शब्द का ग्रहण होता है, मूर्त दीवारों से टकराता है तथा टोका जाता है। इसी कारण विज्ञान द्वारा परिभाषित शून्य (वायुमण्डल के कम या क्षीण दबाव) अथवा ध्वनिरोधी (soundproof) कक्षों में ध्वनि या भाषा सुनायी नहीं देती। अतः वचन, अमूर्तिक न होकर मूर्तिक ही हैं। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी पंचास्तिकाय में शब्द की व्याख्या करते हैंसो खंधप्पभवो खंधो परमाणु संग संधादो। पुष्ठेसु तेसु जायदि सद्दो उप्पादिओ णियदो ||79115 शब्द स्कन्ध से उत्पन्न होता है । वह स्कंध अनन्त परमाणुओं के संयोग से बनता है। उन स्कन्धों के परस्पर स्पर्श होने संघात अर्थात् टकराने (Collision) पर निश्चय से भाषा वर्गणाओं से होने वाला शब्द उत्पन्न होता है । महर्षि पाणिनि के अनुसार 'शब्द' की व्युत्पत्ति 'शब्द' में घञ् प्रत्यय के योग से हुई है जो 'अ' शब्द' बनाता है । 'शब्द' का अर्थ भी 'ध्वनि करना ' ही है । " = - में परिवर्तित होकर ' शब्द् + अ स्कंध दो प्रकार के होते हैं एक भाषा वर्गणा योग्य स्कन्ध, जो शब्द के मूल कारण हैं, अत्यंत सूक्ष्म हैं, समस्त लोक में व्याप्त हैं तथा दूसरे अंगोपांग नामकर्म के उदय से निर्मित बाह्य कारण रूप, कण्ठ, तालु, ओष्ठ घण्टा आदि का हिलना, किसी वस्तु का गिरकर टकराना, पत्थरों का टकराना, जल की लहरों का प्रवाह, मेघादि का मिलना आदि जो स्थूल स्कंध हैं। ये तीन लोक में सर्वत्र नहीं पाये जाते इन दोनों अन्तरंग व बाह्य सामग्री व निमित्तों का जहाँ मेल होता है, वहीं भाषावर्गणा शब्दरूप में परिवर्तित हो जाती है किन्तु सर्वत्र नहीं । शब्द के लिये उपादान क्षमता 'शब्दवर्गणा' की ही है, अत: नियम से भाषा वर्गणा से शब्द उत्पन्न होते हैं । यहाँ इस मान्यता का भी निराकरण हो जाता है कि शब्द या ध्वनि आकाश द्रव्य का गुण है। यदि वह सत्य माना जाये तब आकाश अमूर्तिक होने से शब्द भी अमूर्तिक हो जायेगा तथा अरूपी होने से उसका संघात ( collision) न होने से " ध्वनि या शब्द कैसे उत्पन्न होंगे, फिर कर्णेन्द्रिय द्वारा या कम्पन द्वारा ये अन्य इन्द्रियों से ग्रहण भी नहीं ही पायेंगे। I आचार्य ने 'उप्पादिगो' का प्रयोग करके यह लक्षण भी निश्चित किया है कि शब्द स्वयं उत्पन्न नहीं होता, बल्कि पुरुष आदि की प्रेरणा से उत्पन्न होता है जो प्रायोगिक है 'णियदों' के प्रयोग से यह भी सिद्ध किया कि मेघ, जल की धारा, पत्थर आदि के टकराने से उत्पन्न शब्द स्वाभाविक अर्थात् - 'वैश्रसिक' हैं । इस प्रकार प्रथमत: शब्द के दो भेद-भाषा रूप व अभाषा रूप बनाते हैं । भाषा शब्द पुनः दो प्रकार के होते हैं - अनक्षरात्मक व अक्षरात्मक । द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय की ध्वनि तथा केवली भगवान् की निःसृत वाणी अनक्षरात्मक है तथा संज्ञी पंचेन्द्रियों के मन के सहयोग से उत्पन्न शब्द ‘अक्षरात्मक' हैं । जैसे आर्य, अनार्य आदि द्वारा प्रयुक्त होने वाली संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि नाना प्रकार की भाषाएँ । अभाषात्मक शब्दों में भी दो भेद प्रायोगिक व वैश्रसिक होते हैं। - धवलाकार आचार्य वीरसेन स्वामी ने वग्गणाखण्ड में छह प्रकार के शब्दों का उल्लेख किया है तत वितत, धन, सुषिर घोष और भाषा । अर्हत् वचन, 23 (4), 2011 29
SR No.526591
Book TitleArhat Vachan 2011 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2011
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size8 MB
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