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________________ अर्हत वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर टिप्पणी - 2 अंतर पीड़ा की अपील -सुरेश बाफना* सारांश श्वेताम्बर जैन परम्परा के वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता बंधुओं ने जैन धर्म संघ में बढ़ रहे शिथिलाचार पर अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए यह आलेख गत वर्ष भेजा था । वर्षायोग के प्रारंभ में प्रकाशित इस अंक में यह टिप्पणी इस भावना से प्रकाशित है कि सभी वर्ग स्वयं के आचरण में परिष्कार कर धर्म प्रभावना में योगदान देवे। यह आज भी इतनी ही सामायिक है जितनी गतवर्ष । - सम्पादक जैन साधु सही मायने में देखा जाय तो इस विश्व का सर्वश्रेष्ठ आश्चर्य होगा। जिस दिनचर्या में जैन साधु जीते हैं वह भौतिकता के पीछे पागल इस विश्व के लिए अविश्वसनीय लगती है । पर समाचार पत्रों में स्वयं देखकर व अन्य माध्यमों से यह ज्ञात होने पर कि संयम वेश में कुछ जैन साधु राजनैतिक, सामाजिक एवं व्यवसायिक जाहिर कार्यक्रमों में अपनी भूमिका देकर राजनीतिक प्रचारक, सामाजिक सेवक व व्यावसायिक परामर्शदाता की भूमिका निभाते देखकर एवं उन्हें निरन्तर वाहन का उपयोग व अन्य जिनाज्ञा विरुद्ध आचरण करते देखकर अत्यंत पीड़ा का अनुभव होता है कि वे मुनिवेश धारण किये किस ओर जाकर क्या काम कर रहे हैं। संसार की सबसे निम्न कक्षा की यदि कोई नीति है तो वह है राजनीति, जिसमे जिनाज्ञा का पालन करने का कोई साधन मौजूद नहीं हो सकता है और जहां जिनाज्ञा का पालन सम्भव नहीं वहां जैन साधु की दखलंदाजी व चाह बहुत दुःखदायी है। सामाजिक उत्थान के लिए भी संसार त्यागी जैन साधु का प्रेरणा देना अयोग्य है व किसके साथ व्यवसाय करना, न करना इस की प्रेरणा देना भी साधु के लिए जिनाज्ञा सम्मत नहीं है। दशवैकालिक सूत्र के अध्ययन में 'स्वाध्याय' का विवेचन करते हुए पाँचवे स्वाध्याय 'धर्मकथा' के विवेचन में स्पष्ट कहा है कि 'धर्मकथा' यानि अहिंसा आदि लक्षण के युक्त सर्वज्ञ कथित धर्म का व्याख्यान करना जिससे अन्य को वैराग्य की उत्पत्ति हो और मोक्षाभिलाषी बने । एकदम स्पष्ट शब्दों में कहा है कि जैन साधु अहिंसा के लक्षणयुक्त प्रेरणा दें जिससे श्रावक को वैराग्य की उत्पत्ति हो व मोक्षमार्गी बने। जैन साधु कतई राजनीतिक बातें करके श्रोता को राजनीतिक वोट की निश्चितता करने को कहे या व्यावसायिक प्रेरणा देकर अर्थोपार्जन हेतु संगठन बनाने की बातें करे जिससे व्यवसाय फले फूले तो यह स्पष्टतः जिनाज्ञा विरुद्ध आचरण है व अपने आप को अचारित्रिक होने का प्रमाण देना है। साधु स्वयं अर्थोपार्जन से अलग हो चुका है, त्रिविध विराम को उसे प्रत्याख्यान है तो वह किस तरह ऐसी बातों की प्रेरणा दे सकेंगे? जैन साधु अपनी आत्मा के उत्थान के लिए पूर्णरूपेण स्वार्थी होना चाहिए, अपनी आचरणा का पालन करते हुए यदि समय मिले तो श्रावक को सिर्फ संसार की असारता की व्याख्या करके वैराग्य लेने की भावना उत्पन्न करवानी चाहिए, यदि कोई जीव सम्पूर्ण वैराग्यवान न बन सके तो श्रावक को बारह व्रतधारी बनने की प्रेरणा के अलावा और कोई प्रेरणा देना अनधिकार चेष्टा है व यह सरासर अर्हत् वचन, 23 (3), 2011 83
SR No.526590
Book TitleArhat Vachan 2011 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2011
Total Pages101
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size32 MB
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