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7. प्रो. राधाचरण गुप्त
सम्पादक गणित भारती (पूर्व प्राध्यापक - गणित, बिरला प्रौद्योगिकी संस्थान - मेसरा ), आर- 20, रसबहार कालोनी, लहरगिर्द, झाँसी (उ.प्र.)
1995 से 2002
8. डॉ. तकाओ हायाशी
इन्स्टीट्यूट ऑफ साईस एण्ड टेक्नोलॉजी, दोशीशा विश्वविद्यालय,
क्योटो - 610- 03 (जापान) 1995 से 2002
9. प्रो. पारसमल अग्रवाल रसायन - भौतिकी समूह ओक्लेहोमा स्टेट विश्वविद्यालय, ओक्लेहोमा (अमेरिका)
(पूर्व में विक्रम वि.वि., उज्जैन में पदस्थ ) 1999 से 2002
10. डॉ. स्नेहरानी जैन
11.
Jain Education International
(सेवानिवृत्त प्रवाचक - भेषज विज्ञान, डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय) C/ c. श्री राजकुमार मलैया, भगवानगंज, स्टेशन रोड, सागर (म.प्र.)
1999 से जनवरी 2001
श्री सूरजमल बोबरा
निदेशक- ज्ञानोदय फाउन्डेशन
9/2, स्नेहलता गंज, इन्दौर
-452003 (म.प्र.) अप्रैल 2001 से 2002
12. डॉ. महेन्द्रकुमार जैन 'मनुज'
कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ पुरस्कार
श्री दिगम्बर जैन उदासीन आश्रम ट्रस्ट, इन्दौर द्वारा जैन साहित्य के सृजन, अध्ययन, अनुसंधान को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर के अन्तर्गत रुपये 25,000 = 00 का कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रतिवर्ष देने का निर्णय 1992 में लिया गया था। इसके अन्तर्गत नगद राशि के अतिरिक्त लेखक को प्रशस्ति पत्र, स्मृति चिह्न, शाल, श्रीफल भेंट कर सम्मानित किया जाता है।
05.06.2003
शोधाधिकारी - सिरि भूवलय परियोजना C/o. कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ,
584, महात्मा गांधी मार्ग, इन्दौर - 452001 (म.प्र.) अप्रैल 2001 से 2002
1993 से 1999 के मध्य संहितासूरि पं. नाथूलाल जैन शास्त्री ( इन्दौर), प्रो. लक्ष्मीचन्द्र जैन (जबलपुर), प्रो. भागचन्द्र 'भास्कर' (नागपुर), डॉ. उदयचन्द्र जैन (उदयपुर), आचार्य गोपीलाल 'अमर' (नई दिल्ली), प्रो. राधाचरण गुप्त (झांसी) एवं डॉ. प्रकाशचन्द्र जैन ( इन्दौर) को कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।
वर्ष 2000, 2001 एवं 2002 हेतु प्राप्त प्रविष्टियों का मूल्यांकन कार्य प्रगति पर है। वर्ष 2003 हेतु जैन विद्याओं के अध्ययन से सम्बद्ध किसी भी विधा पर हिन्दी / अंग्रेजी में लिखित मौलिक, प्रकाशित / अप्रकाशित कृति हेतु प्रस्ताव 30 सितम्बर 03 तक सादर आमंत्रित हैं। निर्धारित प्रस्ताव पत्र एवं नियमावली कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ कार्यालय में उपलब्ध है। देवकुमारसिंह कासलीवाल
अध्यक्ष
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डॉ. अनुपम जैन मानद सचिव
अर्हत् वचन, 15 (1-2), 2003
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