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जैन, ओ. पी. : नक्षत्र भोजन, 6 (4), 242
N6.13 N7.1
जैन, मीरा : जैन चित्रकला की दशा - दिशा और समाधान, 7(1). 25-26
N7.2
बजाज, मदन मोहन : भुरता देश की दर्दनाक दास्तान - 4000 ई. का भारत, 7(1), 27-28
N7.3
जैन, लक्ष्मीचन्द्र : चरखे का टूटे ना तार (पंडित परम्परा का आर्थिक पक्ष), 7 (1), 29
N 7.4
. : The Return of the pair of Mythical Acquatic Creaters (Makaras) to Sahu Shanti Prasad Jain Kala Sangrahalaya of Khajuraho, 7(1), 97.98
N7.5
N7.6 N7.7 N7.8 N7.9
आर्य, सुरेन्द्रकुमार : गुजरात में जैन पुरा सम्पदा की नवीनतम् उपलब्धि एवं उसका ऐतिहासिक महत्व. 7(2), 29-31 जैन, राजकुमार : 21 वीं शताब्दी में जैन धर्म, 7(3), 31-34 जैन, अभयप्रकाश : क्या तानसेन - बैजू का मुकाबला हुआ था?, 7(3), 35-37 जैन, मनोजकुमार निर्लिप्त' : ग्रहस्थों - श्रावकों द्वारा दान व्रतों से भी अधिक महत्वपूर्ण, 7(4), 39-42 जैन, कस्तूरचन्द 'सुमन' : सोनागिरि तीर्थस्थल की प्राचीनता, 7(4), 43-45
N 7.10 Lal, Jawahar, G. : Did the Sātvāhanas Patronise Jainism,
7(4), 77-78
N7.11 जैन, प्रकाशचन्द्र : अमर ग्रन्थालय - एक परिचय, 8 (1), 52 N8.1 माहेश्वरी, एच.बी. 'जैसल' : छतरपुर के जैन मन्दिरों में विद्यमान भित्तिचित्र, 8 (1), 53-54
N8.2 N8.3 N8.4
Shastri, T.V.G. : Samantabhadra - The Greatest Exponent of Syādavāda. 8(1), 55-56 अतुल (ब्र.) : हमारे पूर्वज - सराक, 8 (2), 57-60
जैन, नीलम : सराक क्षेत्र में विकीर्ण जैन पुरातत्व, 8 (2), 61-64
N8.5
जैन, स्नेहरानी : तत्वार्थ सूत्र - आधुनिक परिप्रेक्ष्य में, 8 (2), 65-67
N8.6 जैन, उमेशचन्द्र : नेपाल में जैनधर्म, 8(2), 68 N8.7 जैन, संदीप सरल' (अ.) : बुन्देलखण्ड क्षेत्र में अनदेखी पांडुलिपियाँ, 8 (3), 53-55 N8.8 जैन, सुदीप : भारत भारती : प्राकृत भाषा, 8 (3), 57-58 N8.9 जैन, अभयप्रकाश : गोपाचल दुर्ग का जैन विद्यापीठ एवं जैन मन्दिर पुरावशेष, 8 (3), 59-61 N8.10 जैन, अशोक सहजानन्द' : ज्योतिष के दर्पण में आपका घर, 8 (4), 67-68
N8.11 जैन, अभयप्रकाश : जम्बूद्वीप और पृथ्वी की स्थिरता के तथ्य, 8 (4), 69.70
N8.12 सराफ, संजीव एवं पाण्डे, प्रभात : दशमलव वर्गीकरण पद्धति के जैन पुस्तकालयों में अनुप्रयोग, 8 (4), 71-72
N8.13 N9.1
जैन, सूरजमल : मंत्र विद्या की जैन मान्यता संदिग्ध , 8 (4), 79 जैन, सुरेन्द्रकुमार : भगवान पार्श्वनाथ का समवशरण स्थल - नैनागिरि, 9(1), 55-56
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अर्हत् वचन, 15 (1-2), 2003 Jain Education International
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