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________________ संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में मुख्य अतिथि श्री सूरजमल बोबरा का उद्बोधन परम श्रद्धेय बालाचार्य श्री योगीन्द्रसागरजी महाराज के चरणों में सादर नमोस्तु। आदरणीय अध्यक्ष महोदय, जैन चिंतन के उपस्थित मर्मज्ञ विद्वान्गण एवं सुधी श्रोता बंधु, जैन दर्शन में पॉच परमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है, किन्तु क्या छठा नहीं है? मुझे कई बार लगता है कि छठा परमेष्ठी है और वह है सुधी श्रोता, श्रावक, इन पाँच परमेष्ठियों की ओर आस्था से देखने वाला मानव मन। बालाचार्य श्री योगीन्द्रसागरजी महाराज स्वयं प्रयोगधर्मी हैं, उन्होंने इस छठे परमेष्ठी को उसके सांसारिक रूप में रहते हए भी शांति प्राप्त हो सके, ऐसे प्रयोग किये हैं। आज एक दुर्लभ योग है कि कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ के परिसर में ये परमेष्ठी अपने- अपने आसन पर विराजमान हैं, उन सभी को सादर प्रणाम। इसे भी कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ का सौभाग्य कहा जाना चाहिये कि देश के मुर्धन्य विद्वान् इतिहास, दर्शन तथा विज्ञान के शोध कार्यों को गति देने के लिये, मार्ग ढूंढने के लिये, यहाँ एकत्रित हुए हैं। कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ के सभी शिल्पियों का हार्दिक अभिनन्दन एवं सभी विद्वानों का भाव भरा स्वागत। शोध वास्तव में एक अन्तर्यात्रा है, जो सच्चाई को खोज लेने की अभिलाषा का नाम है। सभी विषयों के आचार्य और वैज्ञानिक शोधार्थी ही हैं जिन्होंने अपने आत्म चिंतन व अपने ऊपर किये गये प्रयोगों से इस संसार को, ज्ञान-विज्ञान को, स्वरूप व परिभाषा दी। राजा ऋषभ संभवत: प्रथम ज्ञात वैज्ञानिक हैं जिन्होंने संसार के क्रिया - कलापों, प्रकृति के स्वरूपों व मानव मस्तिष्क की तरंगों को समझा, उन्हें आधार दिया और उन्हें परिभाषित किया। इसी का विस्तार उनके गृहत्याग के रूप में हुआ और श्रमण चिंतन की दार्शनिक पीठ का पुनर्स्थापन हुआ। इसके बाद के कालों में भी यह शोध चलता रहा और वह आज भी जारी है। गत्, वर्तमान और भावी में झांकने की ललक ही शोध का आधार है। यही ललक आज यहाँ उपस्थित विद्वानों की आँखों में दिखाई दे रही है। मैं इस ललक का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। 'इतिहास' शोध का एक महत्वपूर्ण विषय होता है। इतिहास के बन्द दरवाजे खुल जायें तो बहुत सी धुंध छट जाती है। जैन इतिहास को समझने में शोधार्थी को कई अवरोधों का सामना करना पड़ता है, जैसे - (1) यद्यपि नेमिनाथ पूर्व श्रमण चिंतन के प्रभावी अस्तित्व के कई संकेत हैं, किन्तु इतिहासकारों ने अज्ञात इतिहास काल की परिभाषा में उसे कैद कर दिया है। (2) नेमि, पार्श्व व वर्द्धमान काल में श्रमण चिंतन के बहुआयामी अस्तित्व के कई प्रमाण हैं किन्तु राजनैतिक व धार्मिक आग्रहों के कारण उन्हें नष्ट व भ्रांतिपूर्ण कर दिया गया। (3) स्वयं जैन संघ ने अपने आंतरिक विभेद के कारण अपने इतिहास को कभी पारदर्शी आधार नहीं दिया। हम जानते हैं कि यदि चिंतन के ऐतिहासिक आधार को तर्कसंगत स्वरूप नहीं दिया गया तो जैन जीवन के कई पारम्परिक आधार खिसक जायेंगे। मेरा ऐसा सोचने का कारण है कि जैन परम्परा के वाहक चन्द्रगुप्त और खारवेल का इतिहास 1000 वर्षों तक अंधकार में रहा और जैन संघ ने कभी उसे अनावृत नहीं किया। चन्द्रगुप्त का इतिहास अर्हत् वचन, अप्रैल 2001 Jain Education International 87 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526550
Book TitleArhat Vachan 2001 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2001
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size14 MB
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