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अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
वर्ष - 13, अंक - 2, अप्रैल 2001, 35 - 38 भगवान शिव एवं विष्णु के अवतार
- ऋषभदेव : एक चिंतन
- डॉ. राजेन्द्र कुमार बंसल*
वैदिक दर्शन और जैनधर्म के मूल सिद्धान्त और उनके महापुरुषों का जीवन चरित्र एक - दूसरे से घुला - मिला है जिसके मध्य भेद - रेखा खींचना बड़ा कठिन है। जैन दर्शन में जो बात सिद्धान्त रूप से कही गई है वही बात वैदिक धर्म में कथानकों और प्रतीकों के रूप में स्वीकार की गई है। पहले दार्शनिक सिद्धान्त जनमानस को सहज ग्राह्य बनाने हेतु कथानकों का सहारा लिया जाता था। प्रतीत होता है कि काल-प्रवाह में कथानक ही कथा - पुराण बनकर रह गये और उनके भीतर निहित तत्त्व-दर्शन गायब हो गया। उदाहरण के रूप में ब्रह्मा, विष्णु और महेश (शिव) के स्वरूप को ही लें। ब्रह्मा सृष्टि का कर्ता, विष्णु सृष्टि का पालक और शिव सृष्टि के संहारक के रूप में निरूपित किये गये हैं। वस्तुत: यह जन्म, जीवन और मृत्यु, इन तीनों के प्रतीक के रूप में सम्पूर्ण वस्तु - स्वरूप का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसकी व्याख्या जैनदर्शन में वस्तु के सत् स्वरूप द्वारा की गई है। परम ब्रह्म परमात्मा इन तीनों शक्तियों के ऊपर है।
उत्पत्ति, स्थिरता, विनाश, वस्तु स्वरूप की ये तीन अवस्थाएँ हैं। ये तीनों अवस्थाएँ विश्व - परिवर्तन का कारण हैं, जो प्रत्येक जीव में सदैव विद्यमान रहती हैं। बालक जन्म लेता है, वृद्ध होता है और एक समय के बाद मृत्यु को प्राप्त होता है। इस जीवनकाल में उसके शरीर में अनेकानेक अवस्थायें बदलती रहती हैं। बालक से वृद्धपना एकदम से नहीं हो जाता है। नित - निरन्तर परिवर्तनों का ही वह परिणाम है। इसमें ब्रह्मा उत्पत्ति के प्रतीक हैं, विष्णु जीवन के प्रतीक हैं और वस्तु की अवस्था में परिवर्तन शिव के प्रतीक है। विज्ञान ने वस्तु स्वरूप की इन तीन अवस्थाओं को न्यूट्रान, इलेक्ट्रान एवं प्रोट्रान के रूप में स्वीकार किया है। अंग्रेजी में 'गाड' शब्द की उत्पत्ति में यही तीनों शक्तियाँ निहित हैं। इसमें 'जी' जनरेटर, 'ओ' ऑपरेटर एवं 'डी' डिस्ट्रक्टर का संक्षिप्त रूप है। जैन दर्शन के अनुसार वस्तु का सत् - स्वरूप सृजन, संहार एवं स्वरूप - के - सातत्व का सूचक है जो प्रकृति - परिवर्तन को अपने में समाविष्ट किये हैं।
पुराणों में विष्णु के 24 अवतारों को मान्य किया गया है। ये अवतार वस्तुत: जीवन, विनाश एवं स्थिरता के सूचक हैं। ब्रह्मा, विष्णु, शिव की तीन शक्तियाँ पृथक-पृथक रूप में कार्य नहीं करती हैं। वे परस्पर एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं एवं वस्तु स्वरूप की प्रतीक शक्तियाँ हैं। व्यावहारिक जीवन में भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। जहाँ जन्म है, वहाँ जीवन है और मृत्यु भी।
अवतार - वाद की समीक्षा करने पर भी इस बात की पुष्टि सहज ही हो जाती है। भागवत् महापुराण के पंचम स्कन्ध एवं वेदों में नाभिपुत्र ऋषभदेव को विष्णु का आठवाँ अवतार मान्य किया है। विष्णु - पुराण, मार्कन्डेय - पुराण, प्रभाष - पुराण, ऋग्वेद, शिवपुराण आदि में ऋषभदेव को जैनधर्मका प्रथम तीर्थंकर मान्य किया है। महाशिवपुराण में उन्हें शिव के 28 योगावतारों में गिना गया है। उसमें ऋषभावतार को निम्नस्वरूप में ही स्वीकार किया गया है -
इत्थं प्रभाव ऋषभोवतार शंकरस्य मे
सतां गतिदीनबन्धुनर्वभ: कथितस्तवन: (47) अर्थात् इस प्रकार ऋषभावतार होगा जो मेरे लिये शंकर/शिव है, वह मानवों के * बी-369, ओ.पी.एम. कालोनी, अमलाई पेपर मिल, अमलाई - 484 117
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