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सार्थक प्रश्न यह है कि संस्थानों की वर्तमान दुर्दशा के लिये जिम्मेदार कौन है ? संस्थानों की रक्षा के लिये जो संपत्तियाँ दण्ड के रूप में व्यवस्थापकों को सौंपी गई थी उसी के निशान संस्थानों की पीठ पर क्यों उभर आये हैं। जिनवाणी की रक्षा सुरक्षा का अंजन तुम्हारी आंखों में आंजा गया था, तुम उसे कहाँ घो आये? तुम्हारे पास यशस्वी बनने का संकल्प था, तुम लंपटों की संगत में कैसे विचरने लगे ?
बोलो, मेरी समाज के नायक, ये प्रश्न उठ नहीं रहे हैं, ये मनीषियों को मथे दे रहे हैं। अब आमूल चूल और निरन्तर ...... चूक कहाँ हुई है, खोजो, मेरे नायक खोजो कुन्दकुन्द 1 । ज्ञानपीठ, इन्दौर ने गत 13 वर्षों में एक सुव्यवस्थित रीति-नीति पर चलते हुए ठोस आधार बनाया है। योजनाबद्ध ढंग से लम्बे लक्ष्य को सामने रखकर काम करने की अपनी शैली के कारण कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ आज सम्पूर्ण दि. जैन समाज की आशाओं का केन्द्र बिन्दु बन गयी है। कोई भी कठिन काम हो लोग आशा भरी नजरों से ज्ञानपीठ की ओर ही देखते हैं इसकी कार्यपद्धति एक आदर्श है किन्तु आज इस पहल के पीछे कोई रहस्य तो नहीं है। डॉ. अनुपम जैन को इस विशेष सत्र के आयोजन की आवश्यकता क्यों पड़ी यह विचारणीय है। गलतियों को सुधारने का संकल्प भगवान महावीर के 2600 वीं जन्मजयंती वर्ष में तो एक नया अध्याय होगा। अभी कुछ नहीं बिगड़ा है क्योंकि ज्ञान की विरासत की, जिनवाणी की ज्योति / मशाल तुमने भले ही गंवा दी हो परन्तु नई मशाल जलाने के लिये अभी समाज में चिराग है माँ जिनवाणी के पृष्ठ अस्तव्यस्त हो रहे हैं, उनकी फड़फड़ाहट की आवाजें कराहटें तुम तक क्यों नहीं पहुँचती ? क्या हम जैन कहलाने के योग्य बचे हैं?
जो लोग जैन संस्कृति धर्म दर्शन के क्षेत्र में अपनी धनराशि का उपयोग करने की क्षमता रखते हैं, उन्हें ऐसे संस्थानों के नाम पते भी मालूम नहीं हैं, जिन्हें दान दिया जाना चाहिये। तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ की सम्पर्क ने इस अभाव की पूर्ति की है। विद्वानों से मेरी करबद्ध प्रार्थना है कि एक एक संस्थान को चुनकर अपना नियमित मार्गदर्शन / दिशा निर्देश, संरक्षण उपलब्ध करायें जिससे टूटते कगारों से संस्थानों को बचाया जा सके चलती गाड़ी में बैठकर बिना अधिक श्रम के यश पाने की लालसा, पूर्ववर्तियों के त्याग एवं श्रम को ठुकराना विद्वानों को शोभास्पद एवं हितप्रद नहीं है पूर्ववर्तियों के श्रम का मूल्यांकन करते हुए, उनको यथेष्ट सम्मान देते हुए, लगाये गये पौधे को अपने श्रम से सींचना विद्वानों का कर्तव्य है। वर्तमान में यही सच्चा उत्तरदायित्व है दुर्बलताओं को स्वीकारने के बाद का कदम है उन्हें संवारना, स्वीकृति के बाद परिष्कृति एक निष्पक्ष विश्लेषण के पश्चात् परिष्कृति और निष्पत्ति, जीवन और धर्म का यही महामंत्र है।
23.3.2001
प्राकृत प्रकाश की प्रस्तावना
प्राकृत और संस्कृत की प्राचीनता के विषय में अलग-अलग तरह की व्याख्याएँ विभिन्न समीक्षक अपने अपने दृष्टिकोण के अनुसार करते आये हैं। इस विवाद अथवा तर्क वितर्क से ऊपर उठकर इतना कहना पर्याप्त होगा कि ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। इसीलिये संस्कृत नायकों में प्राकृत को स्त्री पात्रों की भाषा के रूप में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इसका मूल कारण इस भाषा की मधुरिमा, इसके शब्दों की मोहकता और हृदय के आकर्षण की स्वाभाविक शक्ति है इसका साहित्य लालित्यपूर्ण और जनसामान्य को प्रभावित करने की महती शक्ति से सम्पन्न है।
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■ डॉ. मण्डन मिश्र
अर्हतु वचन, अप्रैल 2001
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■ डॉ. अभयप्रकाश जैन
एन 14, घेतकपुरी, ग्वालियर 474009
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