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________________ प्रतिक्रिया -3 त्वरित नहीं दूरगामी सोच चाहिये। जैन विद्या संगोष्ठी (3 - 5 मार्च 2001) के एक सत्र 'जैन शोध संस्थानों की समस्यायें एवं समाधान' की अध्यक्षता के मध्य मुझे इस सन्दर्भ में अनेक वक्ताओं के विचार सुनने एवं डॉ. भागचन्द्र जैन 'भास्कर' तथा डॉ. अनुपम जैन, इन्दौर के लिखित आलेख पढ़ने का अवसर मिला। यह संगोष्ठी कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर में हो रही थी एवं मुझे यह लिखते हुए बिल्कुल संकोच नहीं है कि कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ एक विकासमान, प्रतिष्ठित शोध संस्थान है। देश - काल - परिस्थिति की अनुकूलतायें/प्रतिकूलतायें तो सर्वत्र सदैव रहती हैं, ऐसे में भी यदि कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ ने अपेक्षित प्रशंसनीय प्रगति की है तो उसके माडल को ही क्यों न अपनाया जाये। श्री अजितकुमारसिंह कासलीवाल ने इस सत्र में एक बड़ी महत्वपूर्ण बात कही - 'शोध संस्थानों के प्रबन्धकों को स्वयं प्रबन्धक न मानते हुए संस्थान के एक कार्यकर्ता के रूप में कार्य करना चाहिये तभी संस्थान प्रगति कर सकता है। इसकी मिसाल डॉ. अनुपम जैन एवं उनके द्वारा संचालित कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ है। आदरणीय काकासाहब श्री देवकुमारसिंहजी कासलीवाल का विद्वत्प्रेम एवं वात्सल्य तो मैं गत 12 वर्षों से देख रहा हूँ। उनके दृष्टिकोण एवं रीति-नीति की जितनी प्रशंसा की जाये, कम है, किन्तु अजित बाबू की बात सुनकर मुझे अब लग गया है कि कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ का भविष्य उज्जवल है। ___ मैंने बहुत ज्यादा संस्थान तो नहीं देखे हैं किन्तु कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ की प्रगति एवं समृद्धि के पीछे के कारणों को अपने नजरिये से सूचीबद्ध कर रहा हूँ। बस, इन कारकों की रक्षा करें एवं पूर्ववत सफल नीति को अपनायें तो समस्यायें आयेगी ही नहीं। फिर समाधान की क्या जरूरत? यह बात सभी शोध संस्थानों पर लागू होती है। 1. ज्ञानपीठ का शीर्ष नेतृत्व (श्री देवकुमारसिंह कासलीवाल) एवं कार्यकारी प्रमुख (डॉ. अनुपम जैन) में पूर्ण सामंजस्य रहा है। दोनों की चिन्तन की दिशा, लक्ष्य एवं कार्ययोजना एक है। 2. दोनों में पूर्ण विश्वास है। किसी स्तर पर शिकायत, असंतोष के मुझे अब तक दर्शन नहीं हुए। C.E.O. (चीफ एक्जीक्यूटिव आफिसर) एवं शीर्ष नेतृत्व में परस्पर विश्वास एवं कार्य के प्रति संतोष जरूरी है। शीर्ष नेतृत्व को C.E.O. चुनने का पूर्ण अधिकार है किन्तु चुनने के बाद असंतुष्ट रहकर कार्य करने पर संस्थान प्रगति नहीं कर सकता। उसका विकल्प ढूंढने का प्रयास घातक होता है। यह घातक प्रयास यहाँ अब तक नहीं हुआ। 3 ज्ञानपीठ में निर्धारित वित्तीय सीमाओं में कार्य करने की पूर्ण स्वायत्तता है। 4 पर्याप्त सोच विचार कर ही योजना हस्तगत की जाती है एवं यदि कोई कार्य हाथ में ले लिया तो उसको पूर्ण करने की जी - जान से कोशिश की जाती है। 5. समागत विद्वानों को यहाँ पूर्ण सम्मान एवं आदर दिया जाता है। उन्हें पर्याप्त प्रोत्साहन एवं प्रेरणा दी जाती है। इससे संस्था की चतुर्दिक अच्छी छवि निर्मित होती है। 6. यहाँ पर सभी योजनायें तात्कालिक लाभ की दृष्टि से नहीं अपितु दीर्घकालिक हितों को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं जैसे पुस्तकालय का विकास, शोध पत्रिका का प्रकाशन, जैन साहित्य सूचीकरण परियोजना आदि। इनको पूर्णता एवं यश प्राप्त करने में समय लगा है। 7 यहाँ के कार्यकर्ताओं में पूर्ण टीम भावना है। सभी कर्मचारी नेतृत्व के साथ समर्पित ढंग से काम करते हैं। पंथ एवं पक्ष व्यामोह से मुक्त हैं। 8 यदि यही रीति - नीति सभी जैन शोध संस्थान अपनायें तो समस्यायें आयेगी ही नहीं। कोई कम धन व्यय करे या अधिक, फर्क नहीं पड़ता, जरूरत है उचित तरीके से खर्च की। 25.3.2001 . डॉ. सुरेशचन्द्र अग्रवाल अध्यक्ष - विज्ञान संकाय, चौधरी चरणसिंह वि.वि., मेरठ (उ.प्र.) अर्हत् वचन, अप्रैल 2001 98 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526550
Book TitleArhat Vachan 2001 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2001
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size14 MB
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