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________________ सब में संशोधन होना चाहिये । इस सन्दर्भ में मुझे रामा पब्लिशिंग हाऊस, बड़ौत से प्रकाशित पुस्तक 'भारत में धर्म और संस्कृति' देखने को मिली। प्रो. एल. एल. शर्मा द्वारा लिखित इस पुस्तक में 'श्रमण संस्कृति एवं कुलकर परम्परा' शीर्षक विस्तृत आलेख दिया गया है। जिसमें माननीय लेखक प्रो. शर्मा ने अत्यंत सारगर्भित जानकारी निष्पक्ष रूप से दी है। ऐसे आदर्श पाठों को व्यापक रूप से प्रचारित-प्रसारित किया जाना चाहिये। विभिन्न कक्षाओं की दृष्टि से उपयोगी विभिन्न आकार के सम्यक् पाठ तैयार करना तथा उन्हें प्रकाशकों को उपलब्ध कराना भी जैन विद्वानों की जिम्मेदारी है। रचनात्मक कार्य करने हेतु विवादों से बचना जरूरी विगत दिनों मुझे महासमिति के राष्ट्रीय महामंत्री श्री माणिकचन्दजी पाटनी के साथ सराकोद्धारक संत, युवा उपाध्याय श्री ज्ञानसागरजी का साक्षात्कार लेने का सुअवसर प्राप्त हुआ। सम्पूर्ण साक्षात्कार तो महासमिति पत्रिका में प्रकाशित होगा किन्तु उपाध्यायश्री ने जो दो बातें बहुत महत्वपूर्ण कही उन पर मैं आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा। प्रथम तो यह कि रचनात्मक काम करने वाले को विवाद से बचना चाहिये। विभिन्न मामाजिक मुद्दों पर उन्होंने समन्वयात्मक दृष्टिकोण अपनाने की प्रेरणा दी। साथ ही हम लोगों के लिये एक महत्वपूर्ण बात उन्होंने यह कही कि पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव जैसे आयोजनों के साथ तीर्थों के जीर्णोद्धार, जिनवाणी के संरक्षण, संकलन एवं प्रकाशन को जोड़ने का सुझाव दिया। उनकी प्रेरणा से स्थापित प्राच्य श्रमण भारती द्वारा विपुल परिमाण में साहित्य का प्रकाशन किया जा रहा है। हमें विश्वास है कि यदि प्रकाशित होने वाली पुस्तकों के अकादमिक परीक्षण, सुसम्पादन आदि की ओर कुछ अधिक ध्यान दिया जाये तो यह संस्था भी भारतीय ज्ञानपीठ की मूर्ति देवी ग्रन्थमाला अथवा जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर की जीवराज जैन ग्रन्थमाला सदृश जिनवाणी की सेवा कर सकेगी। सम्प्रति यहां से प्रकाशित पुस्तकों का मुद्रण स्तर उत्कृष्ट है। वे नयनाभिराम एवं बहुउपयोगी भी हैं। अर्हत् वचन की विकास यात्रा में दिगम्बर जैन उदासीन आश्रम ट्रस्ट के अध्यक्ष माननीय श्री देवकुमारसिंहजी कासलीवाल एवं अन्य ट्रस्टीगणों का सहयोग अनिर्वचन है किन्तु होलकर विज्ञान महाविद्यालय के प्राचार्य तथा इसी महाविद्यालय के गणित विभाग के मेरे साथी प्राध्यापकों का भी सहयोग कम नहीं है जो मुझे पत्रिका सम्पादन में परोक्ष सहयोग प्रदान करते हैं। उनके सहयोग के बिना यह श्रम एवं समय साध्य कार्य सम्भव ही नहीं है। कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ निदेशक मंडल, अर्हत् वचन सम्पादक मंडल के सभी माननीय सदस्यों, कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ के सभी कार्यालयीन सहयोगियों के प्रति भी मैं कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ, जो सामग्री के संकलन, सम्पादन, प्रकाशन एवं पत्रिका के वितरण तक प्रत्येक स्तर पर हमें अपना निस्पृह सहयोग प्रदान करते हैं। इस अंक के सभी माननीय लेखकगण भी बधाई के पात्र हैं जिनके गहन गम्भीर लेखन ने ही पत्रिका को प्रतिष्ठा दी है। पाठकों की रचनात्मक प्रतिक्रियायें सदैव सादर आमंत्रित हैं। 1.7.2000 डा. अनुपम जैन अर्हत् वचन, जुलाई 2000 7
SR No.526547
Book TitleArhat Vachan 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2000
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size17 MB
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