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________________ अर्हत् वचन जनवरी-मार्च 2000 का अंक प्राप्त हुआ। पूरा अंक पठनीय है। 'जैनधर्मे आचार दृष्टि:' लेख से संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार की दृष्टि पाकर आनन्द से भर गया हूँ। आंग्ल भाषा की तरह संस्कृत भाषा के आलेख भी हर अंक में प्रकाशित होना चाहिये। पत्रिका की साज-सज्जा एवं मुद्रण उत्तम है। .ब्र. संदीप 'सरल' संस्थापक - अनेकान्त ज्ञान मन्दिर (शोध संस्थान), बीना __ अर्हत् वचन का जनवरी - मार्च 2000 अंक मिला। सम्पूर्ण अंक देखा, पढ़ा। आप लेखों की गुणवत्ता एवं सम्पादन पर बहुत ध्यान देते हैं। आवरण पृष्ठ आल्हादकारी है। दुर्गम बद्रीनाथ नगर में भगवान ऋषभदेव सम्बन्धी जैन स्थापना, पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के लेख 'भगवान ऋषभदेव' में जैन कालखंड एवं भगवान ऋषभदेव विषयक विद्वत्तापूर्ण क्रमबद्ध विवरण दिया गया है, इतिहास सरीखा। श्री सुधीरकुमार जैन का सचित्र लेख जैन डाक टिकटों पर रोचक सामग्री प्रस्तुत करता है। आप जैन गणित के ज्ञाता विद्वान हैं। विषय पर निरन्तर सुन्दर लिखते हैं। अंक के सभी लेख शोधपूर्ण, सात्विक हैं। भगवान ऋषभदेव के निर्वाण उपलक्ष पर ऐसे सुन्दर अंक प्रकाशन के लिये मेरी हार्दिक बधाई। . सतीशकुमार जैन महासचिव - अहिंसा इन्टरनेशनल, नई दिल्ली अर्हत् वचन' त्रैमासिकी हाथ में आने के बाद कठिनाई से छूटती है। उसे पूरा करके ही संतोष होता है। हर अंक में ऐसी सामग्री आती है कि उसे पढ़कर आनंद आता है, अंतरंग प्रसन्न हो उठता है, 'ज्ञान-कोष' में और वृद्धि हुई, 'कुछ और पाया', हमेशा ऐसा महसूस होता सोचता हूँ वह दिन निश्चय ही शुभ था कि वर्ष- 1, अंक - 1 से ही अर्हत् वचन मंगाने लगा, वरना निश्चय ही मैं भारी घाटे में रहता। अप्रैल - जून 2000 का अर्हत् वचन परिचय दे रहा है कि किस प्रकार वह निखार पर है आप लोगों की देखरेख में। 'क्या डूंगरसिंह जैन धर्मानुयायी था?' श्री रामजीतजी जैन का एक लेख बड़ी मूल्यवान जानकारी दे गई। अपभ्रंश भाषा के महाकवि रइधूजी की जानकारी (1140 - 1536) एवं ग्वालियर गजेटियर 1908, तोमर खानदान के 1140-1473 का हवाला देकर लुप्त इतिहास को प्रकाश में लाकर जिज्ञासुओं पर बड़ा उपकार किया है। लेखक श्री रामजीतजी जैन की भी एक पीड़ा है, उन्होंने अंत में अपील भी की है - 'अब तथ्य आपके सामने है, कथ्य आपको बढ़ाना है, सत्य प्रगटाना है।' - मैं यही कहूँगा कि लेख में जो कुछ विषय को उजागर किया/या संकेत दिये हैं उन्हें श्री रामजीजी ही आगे बढ़ासकते हैं, वे ही सत्य को प्रगट कर सकते हैं। 'दर्द तूने दिया, दवा भी तू दे', यह मेरे भाव नहीं हैं किन्तु उन्हें जितनी ललक है, जानकारी है, अंतरंग व्यथा है उतनी शायद ही किसी को हो, उन्हें आप लोग दबाइये कि वे ही लेख में दी गई जानकारी को आगे बढ़ायें। मेरा विश्वास है कि आप जैसे महानुभाव एवं अर्हत वचन जैसी पत्रिका ही श्री रामजीतजी से कुछ प्राप्त कर सकती है। इस ओर आप प्रयत्न करें, हम आपके हृदय से आभारी होंगे, हम अल्पज्ञ हैं, विद्वानों की विद्वान अवश्य मानेंगे। अस्तु। यह त्रैमासिकी दीर्घायु हो। आप सब लोगों का भी आभारी हूँ, ऋणी हूँ। विनम्र, पदमकुमार जैन 'सन्मति' आनासागर के सामने, कृष्णगंज रोड़, अजमेर (राज.) अर्हत् वचन, जुलाई 2000 86
SR No.526547
Book TitleArhat Vachan 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2000
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size17 MB
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