________________
41,125 ग्रामीण महिलाओं की रोजी पर सीधा हमला करता है।
यह तो बात हई केवल गोबर के सन्दर्भ में। अब थोड़ा सा भैंस के दूसरे उपयोग के बारे में भी सोचते हैं। विदेशी मांसाहारियों के भोजन हेतु माँस का निर्यात करने वाले पूर्ण रूप से निर्यातलक्षी बूचड़खानों में सिर्फ बूढ़ी व निरूपयोगी भैंसों को काटा जाता है, इस बात को मानने से सुप्रीम कोर्ट ने भी इन्कार किया है। तब भी मान लें कि अल- कबीर में हर साल कटने वाली 1,82,400 भैंसों में से सिर्फ 1 लाख भैंसे तन्दुरूस्त व उपयोगी होती हैं और यह भी मान लें कि इनमें से 50.000 मादा (भैंस) है और 50 नर (भैंसे) हैं। आंध्रप्रदेश (जहाँ अल - कबीर बूचड़खाना स्थित है) में भार ढोने वाली गाड़ियों में भैंसों को जोता जाता है। ऐसे भैंसे की एक जोड़ी एक किसान को रोजी दे सकती है। उसी तरह दो भैंसों के दूध से एक किसान का गुजारा हो सकता है। इस प्रकार 1 लाख भैंसों द्वारा 50,000 लोगों का निर्वाह हो सकता है। दैनिक 500 भैंसों के कत्ल का सीधा कुप्रभाव 91,125 (41,125 गोबर के कंड़े बेचने वाली महिलायें + 50,000 भैंसगाड़ी व दूध वाले) लोगों के उपर पड़ेगा यह दिये जैसी स्पष्ट बात है।
यह तो हुई भैंसों की बात। अल - कबीर में इसके अलावा हर साल 5,70,000 भेड़ें / बकरियाँ काटी जाती हैं। मान लें कि उनमें से 50 प्रतिशत मादा हैं। 25 मादा भेड़ों को पालकर एक परिवार ठीक से निभ सकता है। तो इस प्रकार 2,85,000 भेड़ों के दूध से 11,400 परिवारों का निर्वाह हो सकता है। और ऊन तो नर व मादा दोनों से मिलता है। एक भेड़ से साल में औसतन डेढ़ किलो ऊन मिले, तो 5,70,000 भेड़ों से 8.55 लाख किलो ऊन मिलेगा। आज की दर से (100 रुपये प्रति किलो) उतने ऊन का मूल्य होगा करीब 8 करोड़ रुपये। ऊन की इतनी पैदावार से 40,000 परिवारों का गुजर-बसर हो सकता है।
केवल 300 लोगों को रोजी-रोटी देने वाला अल - कबीर कितने लोगों को बेरोजगार कर देता है। और फिर इन 300 लोगों की नौकरी टिकाये रखने के लिये अल - कबीर को प्रतिदिन नये-नये हजारों पशुओं को यांत्रिक वधस्तम्भ पर चढ़ाना पड़ता है। जब कि उन पशुओं को जीवित रखने में जिन लोगों को काम मिलता है, उनके लिये नित नये पशु भी आवश्यक नहीं हैं। वही पशु पूरे साल भर व स्वयं जब तक जीवित रहें तब तक पालक की आजीविका बनाए रखते हैं। उनके बच्चे पैदा होने से और अधिक लोगों को रोजगार मिलता है। यह कहा जा सकता है कि यदि 5 साल तक 300 लोगों की रोजी - रोटी टिकाये रखनी हो तो अल - कबीर को 5 साल में 9,00,000 भैंसों और 28,50,000 • भेड़ों को मौत के घाट उतारना हेगा। उससे विपरीत यदि 1,80,000 भैंसों और 5,70,000
भेड़ों को कत्ल नहीं किया जाता तो वर्षानुवर्ष हजारों लोगों को रोजगार देंगे व बदलते दिन या साल के साथ नयी भैंसों और भेड़ों की आवश्यकता भी नहीं पड़ेगी।
पशुओं के वध या बचाव से रोजगारी पर जो बुरा या अच्छा असर पड़ता है उसकी तुलना करके पाठक स्वयं तय करें कि राष्ट्र के हित में क्या है? पशुओं का कत्ल या उनकी रक्षा ? पशु देश के लिये आर्थिक बोझ हैं या मूल्यवान पूँजी ? अन्तत:, हम पशुओं को नहीं पालते, पशु हमें पालते हैं।
* - विनियोग परिवार बी - 2/104, वैभव, जांबली गली, बोरीवली (प.), मुम्बई - 4000 092 प्राप्त -9.6.2000
अर्हत् वचन, जुलाई 2000