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________________ ऐसी स्थिति में मनुष्य के समक्ष केवल दो ही विकल्प (Options) रहते हैं - (1) स्वयं के आत्मस्वरूप को पहचान कर आत्मसाधना करें और कर्मों की निर्जरा करते हुए सिद्धपद प्राप्त करे, या (2) इस भौतिक विज्ञानमयी संसार के चक्र में 'पुनरपि मरणं, पुनरपि जनणं' के दुष्ट चक्र में उलझते रहना। आप स्वयं सोचें, आज आपकी प्राप्त अवस्था, शरीर जिसकी विशेष नाम, कुल, नगर, गांव की प्राप्ती है वे केवल इस जन्म की ही साथी हैं। आज के श्रीमान XYZ अपनी मृत्यु के बाद फिर से श्रीमान XYZ नहीं बनेंगे और न ही बन सकते। इसलिये मनुष्य को अपने स्वयं को जानना तथा पहचानकर धर्म का पालन करना कहा है। अब, धर्म और विज्ञान का सम्बन्ध देखिये। धर्म के बिना विज्ञान लूला (lame) माना गया है। जिस प्रकार एक अपंग व्यक्ति स्थिर होकर चलता-फिर तो नहीं सकता, ठीक उसी प्रकार विज्ञान भी अस्थिर होकर अविज्ञान बनकर रह जायेगा। यदि वैज्ञानिक धरातल पर आधारित धर्म नहीं है तो उसकी भी वही स्थिति बनकर रहेगी। वह भी अधर्म बनकर निरुद्देश्य होकर समय - काल - चक्र में मृत हो जायेगा। जैन धर्म मनुष्यों द्वारा (तीर्थकरों ने) मनुष्यों के लिये, स्वयं को जानने, पहचानने, आचरण करने तथा कर्मशत्रुओं का सम्पूर्ण दमन करके स्वयं को मुक्त करने क प्रक्रिया का नाम है। उसको निजधर्म, विश्व मानव धर्म, जिनधर्म और अन्त में जैन धर्म के नाम से जाना गया। यह किसी व्यक्ति के नाम से नहीं जाना जाता जैसा कि बुद्ध धर्म, ख्रिस्त धर्म या इस्लाम धर्म, ना इसे किसी विशेष तीर्थंकर जैसे ऋषभदेव, पार्श्वनाथ या महावीर के नाम से संबोधित किया है। यह इसकी विशेषता है कि यह सर्वकालिक तथा सार्वभौमिक अंतिम सत्य का दर्शन है जिसको हम सम्यकज्ञान एवं सम्यकदर्शन कहते हैं। विज्ञान भी यही सब करता है, उसका हर कदम सत्य की खोज में उठाया हुआ एक कदम ही रहता है। जैन धर्म का स्वरूप केवलज्ञानी त्रिलोकीनाथ तीर्थंकरों के दिव्यध्वनि से ॐकारमय वाणी में उद्घाटित किया हुआ होने से सम्पूर्ण सत्य पर आधारित होने से श्रद्धापूर्वक ग्रहण करने योग्य है। विज्ञान भी अपने सामर्थ्य के अनुसार इसी सम्यक्ज्ञान की खोज में लिप्त है। जब दोनों के उद्देश्य एक दिशा निर्देश एक ही हैं तो उनमें, विरोधाभास हो ही नहीं सकता। फरक है तो केवल आपकी दृष्टि, आप का मार्ग और आपका विकल्प या उद्देश्य। यदि आपको कृष्ण भक्ति का रोग (To look the darker side only) हो गया है तो शुक्ल पक्ष का पूर्ण विकसित चन्द्रमा भी आपको शीतलता और शांति प्रदान नहीं कर सकता। इसलिये धर्म (जैन धर्म) वैज्ञानिक धर्म है और यह वीतराग विज्ञान है। * कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ द्वारा आयोजित ऋषभदेव संगोष्ठी (18-29 मार्च 2000) के द्वितीय सत्र में प्रदत्त उदबोधन का सम्पादित रूप। ** पूर्व कुलपति, निदेशक - गणिनी ज्ञानमती शोधपीठ, हस्तिनापुर राष्ट्र की धड़कनों की अभिव्यक्ति नवभारत टाइम्स अर्हत् वचन, जुलाई 2000
SR No.526547
Book TitleArhat Vachan 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2000
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size17 MB
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