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________________ यकरका माताका स्वप्नद आत्मपरीक्षण करना आवश्यक युवाचार्थ डो. शिवमूर्ति हमारे यहाँ पूजा-पाठ को ही 'धर्म' माना जाता है । परंतु केवल पूजा-पाठ करने से धर्म आचरण में नहीं आता । धर्म का संबंध अंतर्मन के साथ है। पूजा-पाठ न करते हुए भी अंतर्मन को शुद्ध रखकर धर्म को साधा जा सकता धर्म को जागना यानी पूजा-पाठ करना ऐसी सामान्य धारणा हमारे समाज में है । व्यवहार में कैसे भी बर्ताव किया तो भी हर रोज नित्य नियम से पूजा-पाठ करने पर धर्म का आचरण हुआ ऐसा माना जाता है । परंतु अंतर्मन में प्रेरणा नहीं होगी, तो पूजा-पाठ करके भी धर्म को साधा नहीं जा सकेगा। अंतर्मन में धर्म की प्रेरणा जागृत होने पर ही धर्म के साथ नाता जोड़ा जा सकेगा। प्रचार माध्यम के सारे साधन प्रमुखतः समाचार पत्रों को देखने पर दिखाई देता है कि उनके पृष्ठ हिंसाचार, भ्रष्टाचार आदि घटनाओं से भरे हुए होते हैं । फिर भी लोग समाचार पत्रों को चाव से पढ़ते हैं। समाचार पत्र हमारी आवश्यक्ता ही बन गए हैं। परंतु जिस प्रकार घर घर में समाचार पत्र पढ़े जाते हैं, उसी प्रकार शास्त्र-ग्रंथ या अध्यात्म के ग्रंथ नहीं पढ़े जाते हैं, इन्हीं के पढन की समाज के लिए सचमुच आवश्यक्ता है। परंतु दुर्देव से उसी को टाला जाता है। किसी की निन्दा करना, बुरे विचार रखना ये तो क्षूद्रों के लक्षण हैं। परंतु आज ये ही •लक्षण बड़ी मात्रा में दिखाई देते है। यह खेद की बात है । अपने अवगुणों का आत्मपरीक्षण न करके औरों के अवगुणों को प्रकट करना या उनका प्रचार करना ठीक नहीं है - । दूसरों के अवगुणों को प्रकट करने का, 5500 185 उनको जानने तक का हमें अधिकार नहीं है। उससे संबंधित व्यक्ति अपने अवगुणों का त्याग करेगा, ऐसी आपकी मनःपूर्वक इच्छा होगी, तो ही उन्हें जानने का प्रयत्न करना चाहिए। परंतु दूसरों के अवगुण ज्ञान होने पर व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए ही उनका उपयोग किया जाता है। अहंकार यह मनुष्य का सबसे बड़ा अवगुण । उसके प्रभाव से ही औरों की निन्दा - बदनामी करने की मनुष्य की प्रवृत्ति होती है। केवल अहंकार के कारण बड़े बड़े व्यक्ति कुछ काल के प्रश्चात् नकली साबित हुए हैं। इसके अनेक उदाहरण दिए जा सकेंगे । यश की हवा एक बार मनुष्य के दिमाग में घुस गई कि उसका स्थान 'अहंकार' लेता है। इसी अहंकार में से आगे चलकर अनेक दुष्कृत्यों का जन्म होता है । अहंकार पर विजय प्राप्त करने पर हमें अपने अवगुण और दूसरों के गुणों की भावना होती है । यही भावना सामाजिक वातावरण को स्वस्थ रखने का काम करती है । श्रेष्ठ संत कवि कबीरजी ने एक अत्यंत सुंदर बात कही है । वे कहते है “में लिखी हुई बातों पर या पढ़ी हुई बातों पर भाष्य नही करता। मैं तो केवल जिसका मैंने प्रत्यक्ष अनुभव किया उसी पर बोलता हूँ ।" सब बातों में प्रत्यक्ष अनुभव जीवन में पग-पग पर आते रहते हैं । उन्हीं में से गलतियों को सुधार कर आत्मपरीक्षण नहीं होगा, उन्हीं गलतियों की बार-बार पुनरावृत्ति होने वाली होगी, तो वह व्यक्ति कदापि यशस्वी नहीं हो सकेगा । श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के सौजन्यसे
SR No.525531
Book TitleThe Jain 1998 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrit Godhia, Pradip Mehta, Pravin Mehta
PublisherUK Jain Samaj Europe
Publication Year1998
Total Pages198
LanguageEnglish
ClassificationMagazine, UK_The Jain, & UK
File Size21 MB
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