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10th anniversary pradishdha mahotsava
का सामना नही किया ? हम तो
भगवान बुद्ध के एक प्रवचन में दिए गए उपदेश का सार इस प्रकार था; । शास्त्रीजी ने अपने व्याख्यान में लोगों के समक्ष कहा "इतने बडे खर्च में संसार में दुःख है, दुःख का कारण है, कारण का निवारण है। निवारण से मुक्ति है अनेक लोगों को भोजन उपलब्ध हो सकता था।” परंतु आज के नेता....! । इस विधान का अर्थ समझ में आने पर संपूर्ण बुद्ध दर्शन-जैन दर्शन समझ में आज म. गांधी की शास्त्रीजी की याद इसीलिए होती है। अगर वे चाहते तो आएगा।
अमीर बन सकते थे। इसीलिए शास्त्रीजी अगर पाँच छह वर्ष और रहते, तो देश “जीने की इच्छा" यही सबसे बड़ा दुःख है। जीवन मरण की किसी भी
का ही नहीं अपितु विश्वका कायापलट हो जाता। प्रकार की इच्छा मत रखना। मेरे जीवित रहने में प्राणीमात्र की हत्या है। जीवित हमें भी अपने जीवन का दृष्टिकोण बदलना चाहिए। सख दुःख क्या है ? रहने के लिए मैं एक के बाद एक पापकर्म करता रहूँगा। मेरी इच्छाएं पूरी हो कुछ भी नही बस अपनी दृष्टि का फेर है। आप जिसे सुख कहते हैं, वह धार्मिक जाने पर मैं सुखी हो जाउँगा। ऐसा आप सोचते हो । पर ऐसा होता नही क्यों कि व्यक्ति के लिए दुःख होता है। आप चिसे दुःख कहते हैं, वह धार्मिक व्यक्ति के संसार सुखों की इच्छाँए कभी पूर्ण नहीं हो शकती। हम सोचते हैं अगर आज लिए सुख होता है। भगवान महावीर के चेहरे पर कभी दुःख की रेखा आपने मेरे पास मोटर साईकल होगी तो
देखी है ? तो हम भी उसी भगवान कल मोटर कार आएगी। उसके ।
महावीर के शिष्य हैं । क्यों हम बाद हवाई जहाज, और कुछ
दुःखी हों ? क्या उन्होने संकटों होगा। इस प्रकार व्यक्ति कभी मरत आरदुःख क्या संतुष्ट होता ही नहीं। कुछ न कुछ
छोटी मोटी बातों से घबरा जातें होने की पानेकी आसक्ति रहती
युवाचार्य डा. शिवमुनि
हैं ? घरमें पत्नी बिमार हैं। चाय ही है । परंतु वास्तविकता क्या
कौन बनाएगा ? खाना कौन है? मैं क्यों जी रहा हूँ? आज तक
पकायेगा? अरे क्या हुआ आपने चाय क्या किया? कितना भोजन किया ? कितने वस्त्र बदले? क्या यही जीवन का बना ली? जैसा भी हो भोजन बना लिया। नौकर के न आने पर झाडू लगाने तक अर्थ है ?
का काम अपने आप कर लिया। देखा कितना आनंद आता है सुख मिलता है। अगर सुखी रहना है तो आधा ही भोजन कीजिए, दगुना पानी पीजिए, निसर्ग ने मानव को एक बडा वरदान दिया है। जानते हो कौन सा? मानव तीन गुना मेहनत कीजिए और चौगुना हंसिए । खूब हँसिए यही सुख का मंत्र है। ही ऐसा एकमात्र प्राणी है जो हैंस सकता है । हैंसने की ताकत आपको मालूम है हम कितना भोजन करते हैं, कितना पानी पीते हैं? हम पानी कम पीते हैं और । हँसने से केन्सर जैसी बिमारी भी ठीक हो सकती है। संशोधन से ऋषि प्रभाकर भोजन ज्यादा करते हैं। इसका ही परिणाम है आज अनेक रोगों को, बिमारियों जी ने इस बात को सिद्ध किया है। हँसने के लिए पैसे नहीं लगते। तुम हैंसोगे तो को हम सस्नेह आमंत्रण देते हैं। आज मेहनत (व्यायाम) कम हो गई है। आज दुसरे हँसेंगे। परंतु तुम रोते रहोगे तो और भी किसीको रुलाएँगे । जीवन सुख में हम पैदल चलना ही भूल गये हैं। स्थानक में दर्शन के लिए भी आना हो तो हमें बिताना हो तो क्या कहा था मैने ? कौनसा मंत्र दिया था ? याद है ? आधा स्कूटर, गाडी लगती है। घंटो तक बस की प्रतीक्षा करते है पर पैदल नही चलते भोजन करो, दगुना पानी पीओ, और चौगुना हँसो। । इसिलिए तो अत्याधुनिक सामग्री से सुसज्ज निकले है। “Health Club"
सुखी शान्त रहने के लिए ध्यान करने के लिए किसी विशेष चीज की निकले है। वहाँ हम पैसे देकर व्यायाम करने जाते हैं । पर जो हाथमें हैं उसे
आवश्यक्ता नहीं रहती। एक स्थान पर बैठकर, मौन रखकर ध्यान किया जा करना हमारे शान के खिलाफ हो जाता है। जब डॉक्टर कहते हैं तब हम व्यायाम
सकता है। उससे सुख, शान्ति प्राप्त की जा सकती है। आप सभी लोगों ने सुख के लिए सुबह घुमने निकलते हैं।
की गलत धारणा बना ली है। आईस्क्रीम खाने में, बंगले में रहने में, विवाह जब देखो तब हम दःखी रहते हैं। ऐसा क्यों ? क्यों कि परिवार है, उसका करने में कहीं भी सुख दिखाई नहीं देता। अगर उसी में सुख होता, तो भगवान पालन पोषण करना है। धंधा व्यापार बढ़ाना है। घरमें कन्या का जन्म होने पर महावीर, बुद्ध जंगल में क्यों जाते? उसकी चिन्ता सताती है। क्यों चिन्ता करते हो? अरे! कन्या को जन्म देनेवाले
क्रोध को भी हँसते हुए स्वीकार करो, तो देखो सब हँसेंगे । तनाव कम आप निमित्तमात्र है । आपने जन्म नहीं दिया, जन्म लेने का उसका भाग्य था।
होगा। पति-पत्नी, पिता-पुत्र, सास-बहू इन सारों ने हम एक दूसरे के स्थान पर उसे पालने पोसने वाले आप कौन होते हो?
होते तो एक दूसरे के लिए क्या अपेक्षाएँ रखते ? इस प्रकार सोचना चाहिये । आप धन के लिए जीवन को बेकार कर रहे हो । स्व. लालबहादुर शास्त्री क्रोध में केवल अधिकारों का जतन होता है प्रेम का नही। इस संसार में कोई देश के प्रधान मंत्री होते हुए भी स्वयं की गरीबी का गौरव किया करते थे। मेरी न्यून नही कोई अधिक नही। जिस प्रकार एक गाड़ी के दो पहिए साथ चलते हैं, आमदनी की मर्यादा में ही मैं खर्च करूँगा, इस प्रकार शास्त्रीजी सोचते थे। मोटर गाडी के तो ज्वार होते हैं। सभी साथ चलते हैं तभी तो हम आसानी से उनकी पत्नी भी उसी विचार का पालन करती थी। शास्त्रीजी जब पंतप्रधान थे तब गंतव्य स्थान तक पहुँच पाते हैं। हमारे सभी रिश्ते ऐसे ही होते हैं। उन्हें किस सुख की प्राप्ति न हो सकती थी? पर उन्होंने अपने को जनता का
जीवन में कुछ क्षण ऐसे आते हैं कि आप को शान्त रहना आवश्यक हो सेवक समझा मालिक नहीं।
जाता है। आग में तेल डालने से आग तो भडकेगी ही। पानी डालने पर ही शान्त एक बार अपनी पत्नी के लिए साडी खरीदने शास्त्रीजी एक दूकान में गए। होगी। भगवान बुद्ध के शान्ति के मंत्र का हम पालन नहीं करते। हम शान्ति को दुकानदार बहुत खुश हआ। क्यों न होता? देशका प्रधानमंत्री उसके दुकान बाह्य साधनो में घर, मकान, धन, बेटा इनमें देखते हैं। जीने का धर्म क्या है? आया था। दुकानदार ने साडियाँ दिखाईं। शास्त्रीजी कीमत पूछते रहे। दूकानदार यह जान लिया कि जीवन का द्वंद्व मिट जाएगा। हम जिस घर में रहते हैं, वह कीमत नही बता रहा था। उसने कहा, “आपसे क्या कीमत कहूँगा? आपको केवल मेरा ही नहीं, सबका है ऐसे विचार चाहिए। घर केवल मेरा ही है ऐसा जो भी पसंद हो ले लीजिए। दुकान आप की ही है।" शास्त्रीजी के आग्रह करने विचार करोगे तो दुःखी हो जाओगे । इस विश्व को ही अपनी माँ समझो। सुख पर उसने पाँच हजार रुपए की कीमत बताई। इस पर शास्त्रीजी ने कहा "मेरी भंडार ही भंडार पाओगे। इसी में हमारे जीवन की पूँजी जमा है। कमाई इतनी नहीं है।" और शास्त्रीजी ने कम कीमतवाली साडी खरीदी। एक बार शास्त्रीजी बंगाल में गए। उनके स्वागत के लिए बड़ा खर्च किया गया
- श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के सौजन्य से)
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