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सामान्यतः केसर आदि के साफ हो जाने पर दूध आदि पञ्चामृत से प्रभुजी का हर्षोल्लास के साथ प्रक्षालन करना चाहिये । प्रक्षालन समय अपने शुभ भावों को व्यक्त करने वाले निम्नोक्त दोहे भी बोलें
जल- पूजा जुगते करों, मेल अनादि विनाश । जल-पूजा फल मुज होजो, मागो एम प्रभु पास || ज्ञान कलश भरी प्रातमा, समता रस भरपूर । श्री जिनने नवरांवता कर्म थाये कर्म पाये चकचूर ।।
दूध आदि पञ्चामृत से प्रक्षालन के बाद पुनः जल से प्रक्षालन करें । इतना ख्याल में रक्खें कि न्हवरण का जल भूमि पर इधर-उधर बिखरे नहीं और पैर में आवे नहीं । इस हेतु बाल्टी आदि को समुचित व्यवस्था पूर्व से ही कर दें ।
प्रक्षालन के बाद प्रतिमाजी को पोंछ लें। का प्रयोग करना पड़े, सावधानी पूर्वक करें ।
कोमल हाथों से तीन जल को पोंछने में तो बहुत ही कोमल
अंगलु छन द्वारा यदि सलाई का हाथों से व
मन्दिर में रहे समस्त जिन-बिम्बों की पूजा करने के बाद पुनः मूल-नायक अथवा अन्य जिन-बिम्ब के समक्ष अग्र पूजा करनी चाहिये। (अग्र पूजा समय मन्दिर में इस प्रकार बैठें कि जिससे दूसरों को आने-जाने में तकलीफ न हो और अपनी एकाग्रता में भी भंग न हो ) अप्र पूजा विधि :
प्रभु के सन्मुख धूप-दीप अक्षत आदि द्रव्य पदार्थों से की जाती हुई पूजा अग्र-पूजा कहलाती है। अग्र- पूजा का क्रम निम्न प्रकार से है
१ धूप पूजा
सुगंधित धूप को जलाकर प्रभुजों की धूप-पूजा करनी चाहिये। द्रव्य - पूजा स्वद्रव्य से करनी चाहिये, अतः धूप आदि भी अपना ही लावें ।
यदि स्वयं की शक्ति न हो अथवा धूप नहीं लाये हो तो इतना ध्यान रक्खें कि यदि धूप-दानी में अगरबत्ती जल रही हो तो नई नहीं जलावें ।
धूप पूजा के समय निम्न दोहा बोलें
ध्यान घटा प्रगटावीये, वाम नयन जिन धूप । मिच्छत दुर्गंध दूरे टले, प्रगटे ग्रात्म स्वरूप ।। धूप-पूजा के बाद
दीपक - पूजा :
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द्रव्य-दीप सूविवेकधी करता दुःख होय फोक भाव दीप प्रगट हुए, भासित लोका-लोक ॥ दीपक- पूजा को समाप्ति के बाद दीपक को इस प्रकार ढँक दें कि दीपक भी जलता रहे और उसमें अन्य सूक्ष्म जन्तु भी गिरें । उसके बाद
अक्षत पूजा :
कंकड आदि से रहित तथा अखंड अक्षत से स्वस्तिक आदि की रचना कर अक्षत पूजा करें ।
अक्षत अथवा चावल । अक्षत- पूजा का ध्येय श्रात्मा को अक्षय पद प्राप्त कराने का है । अक्षत शब्द अक्षय-पद का सूचक है । अक्षत द्वारा की गई (स्वस्तिक की ) रचना -
स्वस्तिक की रचना कर व्यक्ति परमात्मा के समक्ष अपना श्रात्म-दर्द प्रस्तुत करता है । स्वस्तिक के चार पक्ष (देव - मनुष्य - तिर्यञ्च व नरक) चार गति के सूचक हैं | उसके ऊपर की गई तीन उगलियाँ सम्यग्ज्ञान- सम्यग्दर्शन व सम्यगुचारित्र रूप रत्नत्रयी की सूचक है तथा सबसे ऊपर अर्ध चन्द्राकार की प्रकृति सिद्धि-शिला तथा उसके ऊपर प्रक्षत श्रेणि] सिद्ध-भगवंतों को सूचक हैं।
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इसके द्वारा साधक परमात्मा से प्रार्थना करता है कि है परमात्मन् ! इस चार-गति रूप भयंकर संसार में अनादि काल से मैं भटक रहा हूँ । आपकी इस पूजा द्वारा मुझे रत्नत्रय की प्राप्ति हो, कि जिसके पालन से मैं भी सिद्धि गति को प्राप्त कर संसार से मुक्त बन जाऊँ ।
स्वस्तिक - रचना समय उपरोक्त भाव को व्यक्त करने वाले दोहे :
चिहुँ गति भ्रमरण संसार मां, जन्म मरण जंजाल । अष्ट कर्म निवारवा, मागु मोक्ष फल सार ॥ प्रक्षत-पूजा करता थका, सफल करु अवतार । फल मांगु प्रभु आागले, तार-तार मुज तार ॥ वर्णन ज्ञान चारित्रना आराधनथी सार । सिद्ध शिलानी उपरे, हो मुज वास श्रीकार ॥ उपरोक्त भाव पूर्वक प्रक्षत-पूजा के बाद
शुद्ध घी के दीपक को जलाकर दीपक - पूजा करें दीपक नैवेद्य-पूजा : पूजा के समय निम्न दोहा बोलें ।
अनादि काल से आत्मा में रही हुई प्रहार की मूच्र्छा को
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