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श्रुतसागर
अप्रैल-२०१९ शकता नहि होय, एटले छंदोमान के ढाळना मेळने माटे एक ज शब्दना मनफावता पृथक्-पृथक् उच्चारणो स्वीकारी तेने अनुरूप जोडणी राखी लीधी हशे। विक्रमनी १७मी सदीना हरिदासनी नीचेनी चार पंक्तिओ ए स्थितिनुं दर्शन करावे छेः मन्दिर मध्य ऊभा रह्या ऋषिनि करी प्रणाम; आप्यूं आसन एकला, पछि बिठा एकि ठामि. देवयानी दुःख धरती, आवि आणि ठाम्य; प्रतिज्ञा नवि रही कुलनी, चूक्या एणि ठाम्य.
हरिदासर्नु लेखन कांइ खास अशुद्ध शैली- नथी, छतां ठामि नो अनुप्रास प्रणाम साथे मेळव्यो छे, ते उपरथी एम लागे छे के ठामि नो उच्चार ठाम (आंखमांना लघु प्रयत्न य कारना जेवो) करवानो तेनो इरादो हशे, अने ते माटे तेणे ह्रस्व इ वापर्यो हशे । बीजे स्थळे तेणे ठाम्य चोक्खो लख्यो छे. वस्तुतः तेणे साधित शब्दोमां जे ह्रस्व इ वापर्यो छे ते अइ नुं संकुचित रूप छे अने तेनो उच्चार ए कार जेवो संभवे छे, ते आ प्रमाणे: मन्दिर मध्य ऊभा रह्या, ऋषिने करी प्रणाम, आप्यूं आसन एकला, पछे बेठा एके ठाम. देवयानी दुःख धरती, आवे आणे ठाम्य, प्रतिज्ञा नवि रही कुळनी, चूक्या एणे ठाम्य.
आ प्रमाणे इ कारनो उच्चार साधित शब्दोमां ए कार संभवे छे, छतां नवि मां ह्रस्व इ कार कांतो शुद्ध वापर्यो होय, किंवा लघु प्रयत्न यकार माटे-नव्य एवा उच्चारण माटे वापर्यो होय, जेम ठामि शब्दमां पण करवामां आव्यु छ। लेखन, उच्चारण अने प्रयत्नमां विकल्पो तेमज अराजकता ए काळे केवां हशे तेनो आ उपरथी ख्याल आवे छ। भाषाना उच्चारणनी स्थिरता माटे विक्रमनुं १७मुं शतक मंथनकाळ रूप हतुं एम जोई शकाय छे।
(क्रमशः) बुद्धिप्रकाश, पुस्तक ८२, अंक १मांथी साभार
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