________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SHRUTSAGAR
27
March-2019 कर्ता परिचय
प्रस्तुत कृति के कर्ता उपाध्याय मेघविजयजी हैं। कृति के अंतर्गत उनकी गुरुपरंपरा तथा गच्छ का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा में संग्रहित सूचनाओं के आधार पर श्री मेघविजयजी नाम के अनेक विद्वान प्राप्त होते हैं, उनमें तपागच्छीय आचार्य देवसूरिजी की परंपरा में मुनि कृपाविजयजी के शिष्य उपाध्याय मेघविजय ने जैनधर्मदीपक सज्झाय, स्तवनचौवीसी आदि अनेक कृतियों की रचना की है, परन्तु प्रस्तुत कृति के कर्ता भी वे ही है, ऐसा निर्णय नहीं किया जा सकता है। अतः इस कृति के कर्ता के गुरु-गच्छपरंपरा के बारे में संशोधन अपेक्षित है। प्रत परिचय
प्रस्तुत कृति का संपादन आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, हस्तप्रत ग्रंथागार की प्रति क्रमांक-३७८४९ के आधार पर किया गया है। जिसका लेखन संवत् वि.१७६९ फाल्गुन सुद-३ है व गणि भक्तिविजयजी के पठनार्थ यह प्रति लिखी गई है। लेखन स्थल कृष्णगढ प्राप्त होता है। यह प्रति एक पत्र की है, प्रति में पंक्तिसंख्या ११ एवं प्रतिपंक्ति अक्षरसंख्या ३७ है। प्रत को अंक व दंड को लालस्याही से लिखा गया है। प्रत के अक्षर सुंदर व सुवाच्य हैं ।
सम्मेतगिरितीर्थस्तवन
GO॥ ॥ ॐ ह्रीं अहँ ऐं नमः॥ श्रीसमेतसिखर सिर वंदओ, वीस तिथं(र्थं)कर वारु रे। तीरथ यात्र करी थिर नंदउ, शिव पद लेवा सारु (रे)
श्रीसमेतसिखर सिर वंदओ॥आंकणी॥॥१॥ अजित संभव अभिनंदन जिनजी, सुमति पदमप्रभ देवा रे। श्रीसुपासचंद्र प्रभुजी, सुविधि सीतल करुं सेवा रे
श्री०....॥२॥ श्री श्रेयांस विमल वांदीजई, अनंत प्रभु धरमा रे। शांति कुंथु अरमली सुव्रत नमि, पारसनाथ गुरु परमा रे श्री०....॥३॥ सिद्ध लही परसिद्धि पमायउ, ए गिरिराज विशेषइं रे। इम अनंत चउवीसी जिनवर, सीधा केवलि देखइं रे
श्री०....॥४॥
For Private and Personal Use Only