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॥31॥
आध्यात्मिक पदो
आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी
(हरिगीत छंद) अद्वैत आत्मसमाधिमां वेदो समाइ सहु रह्या, भाषा परा पश्यंती मध्यम वैखरी ए ते वह्या; वेदो अनन्ता उपजता ने विणसता क्षण क्षण वळी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. भाषा अने मन वर्गणानां दलिक वेदो जाणवां, प्रत्यक्ष ज्ञानी देखतो अनुभव बळे मन आणवां; आ सर्व दुनीआ वेद छे हो ज्ञेय ज्ञाता भेदथी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. अक्षर अनक्षर वेद छे देखो गुरू गमने लही, स्याद्वादथी समज्या विना एकान्तथी जाशो वही; कजीया करो नहि वेदना नामे कदाग्रह आदरी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. स्वाति अने हरिभद्रनां वचनो ज वेदो गुण भर्यां, सर्वज्ञ हेमाचार्यनां वचनो ज वेदो दिल धर्यां; सम्यक्त्व ने चारित्र छे वेदो हृदय श्रद्धा वळी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. प्राचीन सघळु सत्य नहि ने जूठ पण नहि जाणवू, माध्यस्थ्यरूपीवेदथी साचुं हृदयमां आणवू; वेदो प्रगटता संप्रति ज्ञानी हृदयमां अवतरी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. आत्मा कबूले अनुभवे ते वेद छे जन जन प्रति, शुभ वाच्य वाचक वेद छे श्रुत ज्ञान पूर्वक शुभमति; गीतार्थनो अनुभव लहो जाशो न मिथ्यात्वे छळी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी.
॥35॥ (क्रमशः)
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