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श्रुतसागर
जनवरी-२०१६ ......को हार किधो मुगता की माल जेसो, काम गोखीर खीरदधि को सुवास है, कहत कविराज श्रीअजितसंघ तेरो इंसो उज्जल यस मानु गुनरास है,
दुदा कुलधाम हुपे विक्रम सो तेगधारी भयो तप-तेज भारी कुल को प्रकास है॥४॥ अथ तरवार को बरनन छंद-नाराच :
महेस-चक्ख तीसरी, पवे समेत केसरी; चतुः भुजा महेस री, गदा सु भीमराज री; करालरूप काल री, असूर-देवबाल री; किं कोप के प्रनाल री, तडीप्रवाह गाजरी; भखंत आस चाचरी, बजंत नाद भुचरी; रमंत खेल खेचरी, के सूर रिझावणी; विरूप सेष नागणी, किं सिंधु राग-रागिणी; महा संग्राम तागिणी, पिशाच पे बिहावणी; थटा विहंगराज री, संग्राम राम-साज री; सुजीत रे अवाजडी(री), किं सामरूप खोभणी; वीराणजंज डक्कणी, सुराण यंत्र सक्कणी; किं भूत-प्रेत-हक्कणी, कृत्तांत जेम सोभणी; गयंदकुंभ भेदणी, कुनीत सीस छेदणी; सुवीर के उमेंदणी, पिनाकमार साजरी; मयूष मारतंड री, निधाकना प्रचंड री; सुखाग अजितसंग री, थपेट जम्मराज री ।।५।। वंसो(शो) विस्तरतां यातु, वृद्धिर्यातु मह(हा)यसः(शः)
आयुर्विपुलतां यातु, यः आसि(शि)र्वच पत्रिका ॥६॥ ॥ इति श्री पं.दीपविजयकविराजबहा(दु)रविरचितायां श्रीआसि(शि)र
वच पत्र भद्रम् श्रीरस्तु ॥ दिर्घायुरस्तु ॥ कल्याणमस्तु ॥ जयोस्तु ३॥
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