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________________ बचने के लिये बाह्यविधियों की सहायता जैसे- आग लगाकर, पानी में डूबकर, पंखे से लटककर, विषपान आदि का सहारा लेकर शरीर त्याग करता है। न्यायालय ने जो दलील दी कि संलेखना या संथारा को धार्मिक आस्था बतानेवाले धर्मग्रन्थ, प्रवचन, लेख या जैन मुनियों की मान्यता का दस्तावेज पेश नहीं कर पाये। शायद न्यायालय ने जैन धर्म ग्रन्थों में पाये जानेवाले संलेखना के विवरण को पढ़ने की जहमत न उठाई हो वरना जैन आगमों और आगमेतर साहित्य ऐसे साधकों की जीवन गाथाओं से भरे-पटे हैं जिन्होंने संलेखना या समाधिमरण व्रत लिया था। अन्तकृत्दशांग, अनुत्तरोपपातिकदशांग तथा उपासकदशांग में आनन्द आदि उन गृहस्थ साधकों का जीवन दर्शन उपलब्ध है जिन्होंने अपने जीवन के अन्तिम समय में संलेखनाव्रत लिया था। इसके अतिरिक्त आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, उत्तराध्ययन, पंचाशक, रत्नकरण्डश्रावकाचार, सागारधर्मामृत, तथा महाप्रत्याख्यान, समाधिमरण जैसे अनेक प्रकीर्णक ग्रन्थों में संलेखना की गहन चर्चा है। ऐसे में न्यायालय का यह कहना कि इसे प्रमाणित करनेवाले ग्रन्थों का पुरावा नहीं दिया गया, हास्यास्पद लगता है। इस सन्दर्भ में अनेक जैन अभिलेख मिलते हैं जिनसे यह स्पष्ट होता है कि अनेक आचार्यों, मुनियों, राजाओं, श्रेष्ठियों तथा श्रावकों ने प्रशान्तभाव से अपने जीवन के अन्तिम समय में प्रसन्नता पूर्वक संलेखनाव्रत ग्रहण किया था। श्रवणबेलगोल की पहाड़ियों पर अनेक आचार्यों ने संथारा पूर्वक अपना शरीर त्याग किया था। अभिलेखों से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त ने जैन श्रमण दीक्षा लेकर अपने जीवन के अन्तिम समय में संथारा लिया था। अत: प्राचीन काल से लेकर आज तक यह परम्परा निर्बाध रूप से अस्तित्व में है और आगे. भी रहेगी। आचार्य विनोवाभावे ने अपने जीवन के अन्तिम समय में १५५ घंटे का संथारा लिया था। क्या उसे आत्महत्या कहा जायेगा? अतः आत्महत्या और संलेखना में बहुत बड़ा अन्तर है और किसी भी रूप में संलेखना को आत्महत्या नहीं कहा जा सकता। 'श्रमण' के इस अंक में हमनें सामान्य लेखों के अतिरिक्त समसामयिक विषय 'संलेखना' पर कुछ आधिकारिक विद्वानों के लेखों का समावेश किया है जो इसकी परम्परा पर विसद प्रकाश डालेंगे। इन विद्वानों ने बड़ी गम्भीरता से इस प्रथा और वर्तमान में इसके प्रचलन के गुण-दोषों की भी उचित समीक्षा की है। इन लेखों पर आपकी प्रतिक्रिया की अपेक्षा रहेगी। - सम्पादक
SR No.525093
Book TitleSramana 2015 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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