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जैनाचार्यों द्वारा संस्कृत में प्रणीत आयुर्वेद-साहित्य : 45 कृतियों की जानकारी प्राप्त होती है। इन तालिकाओं के आधार पर जैनाचार्यों द्वारा रचित संस्कृत के आयुर्वेद ग्रन्थों की एक संक्षिप्त जानकारी प्रदान करने का प्रयास किया जा रहा है। सिद्ध नागार्जुन : (दूसरी एवं तीसरी शती) ये आचार्य पादलिप्त सूरि के शिष्य थे। इनको सिद्ध इसलिए कहा जाता था कि इन्होंने तन्त्र-मन्त्र और रसविद्या में सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। ये बौद्ध नागार्जन से भिन्न हैं। इनकी महत्त्वपूर्ण कृति 'योगरत्नमाला' नामक वैद्यक ग्रन्थ है। इस कृति पर जैन विद्वान् गुणाकर सूरि द्वारा वि० सं० १२९६ में संस्कृत में ही एक वृत्ति की रचना हुई है। इसकी जानकारी पिटर्सन के रिपोर्ट से होती है। आचार्य समन्तभद्र : (चौथी-पाचवीं शती) इनके द्वारा रचित 'सिद्धान्त रसायन कल्प' नामक अनुपलब्ध ग्रन्थ का पता 'कल्याणकारक' (उग्रादित्याचार्य) के आधार पर चलता है जिसके अवतरण यत्र-तत्र प्राप्त होते हैं। इन्हें यदि एकत्रित कर दिया जाय तो यह दो-तीन हजार श्लोक-प्रमाण हो सकता , है। कुछ विद्वान् इसे अठारह हजार श्लोक-प्रमाण मानते हैं। 'कल्याणकारक' (उग्रादित्याचार्य) में इसके अवतरण संस्कृत में प्राप्त होते हैं। परन्तु पं० के० भुजबलि शास्त्री ने जो सूची दी है उसमें इसे प्राकृत भाषा का बतलाया है। इसके अतिरिक्त उनकी एक अन्य अनुपलब्ध कृति 'अष्टांगसंग्रह' का पता चलता है जिसका अनुसरण करके 'कल्याणकारक' ग्रन्थ संक्षेप में रचा गया। इसकी भाषा का पता नहीं चल पाया है। इनके द्वारा इस विषय पर कनड़ लिपि में रचित एक अन्य ग्रन्थ 'पुष्पायुर्वेद' का भी पता चलता है। आचार्य पूज्यपाद : (४६४ - ५२४ ई०) इनके द्वारा रचित 'कल्याणकारक' नामक संस्कृत वैद्यक ग्रन्थ का उल्लेख प्राप्त होता है जो अनुपलब्ध है, किन्तु त्रोटक प्रकरण कहीं-कहीं उपलब्ध होते हैं। इसमें प्राणियों के देहज दोषों को नष्ट करने की विधि बताई गयी है। इसमें जैन प्रक्रिया का अनुसरण करते हुए जैन तीर्थंकरों के भिन्न-भिन्न चिह्नों के आधार पर परिभाषाएँ बताई गयी हैं। जैस- मृग से १६ का अर्थ लिया गया है क्योंकि सोलहवें तीर्थंकर का लांछन मृग है।" इन्हीं के द्वारा रचित 'पूज्यपादीय' नामक ग्रन्थ का पता 'वसवराजीयम्' नामक ग्रन्थ के आधार पर चलता है, इसमें अधिकांश रसयोग का वर्णन है।१२ इनके द्वारा संस्कृत में रचित अन्य अनुपलब्ध ग्रन्थ हैं- 'वैद्यक योगसंग्रह' एवं 'रसतन्त्र'।