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________________ जैनाचार्यों द्वारा संस्कृत में प्रणीत आयुर्वेद-साहित्य ___डॉ० राहुल कुमार सिंह 'आयुर्वेद' शब्द 'आयु' और 'वेद' इन दो शब्दों के योग से बना है। आयु का अर्थ है जीवन और वेद का अर्थ है ज्ञान। अर्थात् जीवन-प्राण या जीवित शरीर के सम्बन्ध में समग्र ज्ञान आयुर्वेद से अभिहित किया जाता है। चरक संहिता में वर्णित है कि आयु के हित-अहित एवं सुख-दुःख का ज्ञान तथा आयु का ज्ञान जिस साधन से हो उसे आयुर्वेद कहते हैं। इस सन्दर्भ में यह ज्ञातव्य है कि जिस शास्त्र में आय का स्वरूप प्रतिपादित किया गया हो, जिस शास्त्र का अध्ययन करने से आयु सम्बन्धी विस्तृत ज्ञान प्राप्त होता है अथवा जिस शास्त्र के विषय में विचार करने से हितकर आयु, अहितकर आयु, सुखकर आयु और दुःखकर आयु के विषय में जानकारी प्राप्त होती है अथवा जिस शास्त्र के बतलाए हुए नियमों का पालन करने से दीर्घायु प्राप्त की जा सकती है तथा आयु को बाधित करने वाले रोगों का निदान और उनका प्रतिकार करने के उपायों का वर्णन जिस शास्त्र में किया गया है, उसे आयुर्वेद की संज्ञा से अभिहित किया गया है। आयुर्वेद साहित्य को जिस प्रकार वैदिक विचारधारा और वैदिक तत्त्वों ने प्रभावित किया है उसी प्रकार जैन धर्म और जैन विचारधारा ने भी पर्याप्त रूप से प्रभावित कर अपने अनेक सिद्धान्तों से अनुप्राणित किया है। यही कारण है कि जैन वाङ्मय में भी आयुर्वेद शास्त्र का स्वतन्त्र स्थान है। जैन-आयुर्वेद को प्राणावाय कहा जाता है। जैनाचार्यों ने प्राणावाय की विवेचना हेतु लिखा है, 'जिसमें काय-चिकित्सा आदि अष्टाङ्ग आयुर्वेद, भूतशान्ति के उपाय, विष-चिकित्सा तथा प्राण-अपान वायु का विभाग विस्तारपूर्वक वर्णित हो उसे प्राणावाय कहते हैं।२ दृष्टिवाद नामक बारहवाँ अङ्ग-आगम परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका के भेद से पञ्चविध है। इसमें से पूर्वगत या पूर्व नामक भेद चौदह विभागों में विभक्त है। इनमें से बारहवें पूर्व का नाम प्राणावाद या प्राणावाय है। इसी के अन्तर्गत अष्टाङ्ग आयुर्वेद का कथन विस्तार-पूर्वक किया गया है। जैनाचार्यों द्वारा विभिन्न वैद्यक ग्रन्थों के प्रणयन का आधार भी यही 'प्राणावाय पूर्व' ही रहा है। संस्कृत-साहित्य के प्रणयन संवर्द्धन समुन्नति एवं विकास हेतु जैनाचार्यों ने अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। उन्होंने इस साहित्य की लगभग प्रत्येक विधा पर लेखनी चलायी है तथा साहित्य-सर्जन करते समय लोकरुचि का विशेष ध्यान रखा है। जैनाचार्यों ने अध्यात्मविद्या के साथ-साथ धर्म, दर्शन, न्याय,
SR No.525093
Book TitleSramana 2015 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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