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________________ 50 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 1 जनवरी - मार्च 2015 विदिशा की तीर्थंकर मूर्तियों में उन्हें ध्यान - मुद्रा में पूरी तरह शान्त निरूपित किया गया हैं, जो जैन तीर्थंकरों के वीतरागी स्वरूप की सटीक अभिव्यक्ति है और उनकी साधना की पराकाष्ठा को दर्शाती है। यही जैन कला का वैशिष्ट्य भी रहा है क्योंकि जैन कला में तीर्थंकर मूर्तियों के माध्यम से जैन धर्म के साधना, अपरिग्रह और अहिंसा भाव को अनुभूति के स्तर पर अभिव्यक्त किया गया जो किसी भी साधक को जैन धर्म के इन सिद्धान्तों को आत्मसात करने की प्रेरणा देता है। मूर्तिकला एवं मूर्तिपूजा का यही मूल अभीष्ट भी है। पाद-टिप्पणी १. जी. एस. गाई- “थ्री इन्स्क्रीप्सन्स ऑफ रामगुप्त”, जर्नल आफ ओरियण्टल इन्स्टीट्यूट, बड़ौदा, (ज.ओ.इ.ब.), खण्ड १८, १९६९, पृ. २४७-५१. ज.ओ.इ.ब., ३. यू. पी. शाह - " सेन्ट्रल इण्डिया (अध्याय १२) ", जैन आर्ट ऐण्ड आर्किटेक्चर, (सम्पा. ए. घोष), खण्ड एक, नई दिल्ली, १९७४, पृ. १२७-१२८. ४. उदय नारायण राय- गुप्त सम्राट और उनका काल, इलाहाबाद, १९७१, पृ. ६०२-०३. चित्र-सूची : १. चन्द्रप्रभ, दुर्जनपुर (विदिशा, मध्य प्रदेश), ३७५-८० ई., विदिशा संग्रहालय (क्रमांक २४६). २. आर.सी. अग्रवाल - “न्यूली डिस्कवर्ड स्कल्पचर्स फ्रॉम विदिशा”, खण्ड १८, अं. ३, पृ. २५२-५३. चित्र संख्या ०१ *****
SR No.525091
Book TitleSramana 2015 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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