SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ » 42 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 1, जनवरी-मार्च 2015 अचक्षुदर्शन माना गया है। चिंतन वाले के मन की अचक्षुदर्शन पर्यायों अव्यक्त होने से उनका मन:पर्यवज्ञान उन्हें ग्रहण नहीं होता है। व्यक्त मन को ही मन:पर्यवज्ञान ग्रहण करता है। दर्शन की पर्यायें अव्यक्त होने से मनःपर्यवज्ञानी उन्हें ग्रहण नहीं करता है। अत: मनःपर्यवज्ञान का दर्शन नहीं होता है। फिर भी मनःपर्यवज्ञानी मन:पर्यवज्ञान से जानता है और पश्यत्ता से देखता भी है। संदर्भ सूची १. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। - तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय १ सूत्र १ (अ) नाणं पंचविहं पण्णत्तं, तंजहा - आभिणिबोहियाणं, सुयनाणं, ओहिनाणं, मण-पज्जावनाणं, केवलनाणं। - युवाचार्य मधुकरमुनि, नंदीसूत्र, पृ० २४, राजप्रश्नीयसूत्र, सू० २४१, पृ० १६०, भगवती सूत्र, श० ८, उ० २ (ब) मतिश्रुतावधिमनः पर्यायकेवलानि ज्ञानम् ।- तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय १, सूत्र ९ तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय १, सूत्र ९,१०,११,१२ विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ८८ (अ) तं समासओ चउव्विहं पण्णंत्तं, तं जहा - १ दव्वओ, २. खित्तओ, ३. कालओ, ४. भावओ। तत्थ दव्वओ णं आभिणिबोहियणाणी आएसेणं सव्वाइं दव्वाइं जाणइ, ण पासइ। (ब) तत्थ दव्वओ णं सुयणाणी उवउत्ते सव्वदव्वाइं जणइ पासइ।.................. (स) तत्थ दव्वओ णं उज्जुमई अणंते अणंतपएसिए खंधे जाणइ पासइ, तं चेव विउलमई अब्भहियंतराए विउलतराए विसुद्धतराए वितिमिरतराए जाणइ पासइ। पारसमुनि, नंदीसूत्र पृ० २००, २७५, ८१ (द) विशेषावश्यकभाष्य गाथा ४०२ - ४०५, ५५३, ८१२-८१४ भगवतीसूत्र, शतक ८, उद्देशक २ (अ) तत्थ दुव्वओ णं उज्जुमई अणंते अणंतपएसिए खंधे जाणइ पासइ, तं चेव विउलमई अब्भहियंतराए विउलतराए विसुद्धतराए वितिमिरतराए जाणइ पासइ। पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ० ८१ (ब) दव्वमणोजज्जाए, जाणइ पासइ य तग्गएणंते। तेणावासिए उण, जाणइ बज्झेअणुमाणेणं। - विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ८१४ तं पुण चउव्विहं, नेयभेयओ तेण जं तदुवउत्तो। आदेसेणं सव्वदव्वाइं चउव्विहं मुणइ॥ 3
SR No.525091
Book TitleSramana 2015 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy