________________
40 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 1, जनवरी-मार्च 2015
यही बात मलयगिरि भी कहते हैं कि “विशिष्टतर मनोद्रव्य के ज्ञान की अपेक्षा से ही सामान्य रूप मनोद्रव्य के ज्ञान को व्यवहार में दर्शन कहा गया है। वास्तव में वह भी ज्ञान ही है। क्योंकि सामान्य रूप होने पर भी वह प्रतिनियत मनोद्रव्य को ही देखता है। प्रतिनियत (विशेष) को ग्रहण करने वाला ज्ञान ही होता है, दर्शन नहीं। इसलिए आगम में भी चार ही दर्शन बताये गये हैं, पांच नहीं, इसलिए मन:पर्यवदर्शन नहीं होता है । ३५
६. आगमानुसार मत : उपर्युक्त मत आगम के अनुसार नहीं होने से वे ग्रहण करने योग्य नहीं हैं। 'प्रज्ञापनासूत्र' के तीसवें पश्यत्ता ( इसका वर्णन पूर्व में श्रुतज्ञान के साथ कर दिया गया है। ) पद में मनः पर्यवज्ञान को अच्छी प्रकार से देखने वाला होने से साकार उपयोग विषयक देखने रूप पश्यत्ता कहा गया है। इससे मनः पर्यवज्ञानी 'देखता है' ऐसा कहते हैं, क्योंकि जब मन:पर्यवज्ञानी मनः पर्यवज्ञान में उपयोग लगाता है, तब साकार उपयोग ही होता है, अनाकार उपयोग नहीं। उस साकार उपयोग के ही यहाँ दो भेद किए गये हैं- सामान्य और विशेष । ये दोनों ही भेद ऋजुमति और विपुलमति के होते हैं। यहाँ सामान्य का अर्थ विशिष्ट साकार उपयोग और विशेष का अर्थ है विशिष्टतर साकार उपयोग। मन:पर्यवज्ञान से जानने और देखने की दोनो क्रियाएँ होती हैं, यही मत आगमानुसार है इसलिए निर्दोष है।"
ऋजुमति को दर्शनोपयोग और विपुलमति को ज्ञानोपयोग समझना भी भूल है। क्योंकि जिसे विपुलमतिज्ञान है, उसे ऋजुमति ज्ञान भी हो, ऐसा होना नितान्त असंभव है। क्योंकि इन दोनों के स्वामी एक नहीं, अपितु भिन्न-भिन्न होते हैं।
प्रश्न यहाँ पर जो ऋजुमति को सामान्य अर्थ को ग्रहण करने वाला और विपुलमति को विशेषग्रहण करने वाला बताया गया है उससे तो जब ऋजुमति सामान्यग्राही है तब तो वह दर्शन रूप ही हुआ, क्योंकि सामान्य को ग्रहण करने वाला दर्शन होता है, तो फिर ऋजुमति को ज्ञान क्यों कहा?
-