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22 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 1, जनवरी-मार्च 2015 अर्थात् जिसकी मोहकर्म ग्रन्थि छूट गयी है, जो चरित्र के परिपालन में आगे हो, वही अध्यात्म का अधिकारी है।१४
चरमे पुद्गलावर्ते यतो यः शुक्लपाक्षिकः
भिन्नग्रान्थिश्चारित्री च तस्यैवैतदुदाहृतम्।। अत: यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि उचित प्रवृत्ति रूप अणुव्रत व महाव्रत से युक्त होकर मैत्री आदि भावनापूर्वक शास्त्रानुसार चिन्तन करना अध्यात्म है। इससे पापक्षय, वीर्योत्कर्ष और चित्तसमाधि आदि प्राप्त हो सकते हैं। इस अध्यात्म का पुन:-पुन: अभ्यास भावना है। इससे काम, क्रोध आदि अशुभ भावों की निवृत्ति और ज्ञानादि जैसे शुभ भावों की पुष्टि होती है।१५ भावना : अध्यात्म के अनन्तर भावना का वर्णन प्राप्त होता है जिसका स्वरूप निर्वचन इस प्रकार है
जिनोदितमिति त्वाहुर्भावसारमदः पुनः।
संवेगगर्भमत्यन्तममृतं मुनिपुङ्गवा।।१६ अर्थात् अध्यात्म का बार-बार अभ्यास करने से योग साधना में वृद्धि होती है, योग भावना का विकास होता है। 'योग्भेद द्वात्रिंशिका' में भावना का लक्षण बताते हुए कहा गया है- प्राप्त हुए अध्यात्म योग का बुद्धिसंगत बार-बार अभ्यास करना, चिन्तन करना भावनायोग है।१७ यह भावना योग अध्यात्म का दृढ़ संस्कार और ध्यान की पूर्व भूमिका है अर्थात् यह अध्यात्म और ध्यान के मध्य का सेतु है। जिस विषय का अनुचिन्तन बार-बार किया जाता है, अथवा जिस प्रवृत्ति का बार-बार अभ्यास किया जाता है उससे मन में उसके दृढ़ संस्कार जम जाते हैं, उस संस्कार या चिन्तन को भावना कहा जाता है। आगमों में भावना के लिए अनुप्रेक्षा (अणुवेक्खा) शब्द का प्रयोग प्राप्त होता है। अध्यात्मयोगी के लिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वैराग्य, ये पाँच विषय