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20 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 1, जनवरी-मार्च 2015 आचार्य हरिभद्र ने योग-साधना करते समय सामाजिक धर्मों (दायित्वों) के आचरण पर बहुत बल दिया है। आध्यात्मिक मार्ग की प्रथम शर्त है सामाजिक धर्म तथा उसकी मर्यादाओं का पालन कर अनेक सद्गुणों को जीवन में आत्मसात करना। आध्यात्मिकता के नाम पर सामाजिक आचरण छूट न जायें इसलिए योग-साधना में प्रवेश के पूर्व की अवस्था का नाम उन्होंने पूर्वसेवा रखा है। जिसमें गुरु, माता-पिता, अपने सम्बन्धी, वृद्ध तथा अपने ऊपर आश्रितों- इन सभी की सेवा का विधान है।
पूर्वसेवा तु तन्त्रज्ञैर्गुरुदेवादिपूजनम्। सदाचारस्तपो मुक्त्यद्वेषश्चेह प्रकीर्तिता।। माता पिता कलाचार्य एतेषां ज्ञातयस्तथा।
वृद्धा धर्मोपदेष्टारो गुरुवर्गः सतां मतः।। इस प्रकार आचार्य हरिभद्र ने आध्यात्मिकता तथा सामाजिकता दोनों के कर्त्तव्यों का उपदेश देकर निवृत्तिपरक जैन दर्शन को एक नया मोड़ दिया है। आध्यात्मिक विकास के लिए उद्यत जीव के सन्दर्भ में ‘योगबिन्दु' दो प्रकार के योगाधिकारियों की चर्चा करता है- प्रथम चरमावर्ती तथा द्वितीय अचरमावर्ती। चरमावर्ती योगी ही मोक्ष के अधिकारी हैं। वहाँ आध्यात्मिक विकास के पाँच भेदों अथवा योग साधना के विकास की क्रमिक पाँच भूमिकाओं- अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय इनका निर्देश प्राप्त होता है। इसके सम्यक पालन से कर्मक्षय होता है तथा मुक्ति होती है। इसके साथ सांख्य-योग परम्परा की तुलना करते हुए आचार्य ने कहा है कि इनमें से प्रथम चार सम्प्रज्ञात समाधि तथा अन्तिम एक असम्प्रज्ञात समाधि है। इन पाँचों भेदों का संक्षिप्त वर्णन नीचे दिया जा रहा है१. अध्यात्म योग्यतानुसार यथोचित धर्मप्रवृत्ति (तप, जप, पूजा, अर्चना, कायोत्सर्ग, आदि) में जो प्रवृत्त होता है उसे आत्मसंप्रेक्षण, आत्महितवृद्धि या