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8 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 1, जनवरी-मार्च 2015 रहती है। इसलिए अनैतिक, असामाजिक तथा अनुचित विचार एवं इच्छाएँ हमारी चेतना में नहीं आ पाते हैं और उनका दमन हो जाता है। वे दमित होकर अचेतन में सक्रिय और प्रबलरूप धारण करके चेतन में आने के लिए तत्पर रहते हैं और अवसर पाकर वे अपना रूप बदलकर प्रकट हो जाते हैं। जब निद्रावस्था में प्रतिरोध की क्षमता शिथिल हो जाती है, तब बाहरी परिस्थितियों तथा आन्तरिक प्रतिरोधों के अनुशासनहीनता से दमित इच्छाएँ अपना रूप बदलकर स्वप्न में अपनी संतुष्टि करती हैं। इस प्रकार फ्रायड ने अपने स्वप्न सिद्धान्त में इच्छाओं की संतुष्टि तथा छद्म रूप पर विशेष बल दिया है। क्योंकि स्वप्न में व्यक्ति की अपनी ही अतृप्त इच्छाएँ प्रकट होती हैं, परंतु उन अचेतन इच्छाओं की अभिव्यक्ति स्वप्नों में वास्तविक न होकर गुप्त होती है। इसलिए व्यक्ति स्वप्न देखने के बाद स्वयं भी यह विश्वास नहीं कर पाता कि वे उसी की इच्छाएँ हैं। युग का स्वप्न सिद्धान्त यंग के अनसार जीने की इच्छा ही व्यक्ति की मौलिक इच्छा है। इस इच्छा की पर्ति के लिए ही व्यक्ति क्रियाशील रहता है। जब तक इच्छा-पूर्ति में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं होती तब तक इसमें उन्नति देखी जाती है। किन्तु जब इस इच्छा शक्ति में रुकावट आ जाती है तो यह आगे बढ़ने के बदले पीछे की ओर मुड़ जाती है, जिसे प्रतिगमन कहते हैं। इस प्रतिगमन के कारण इच्छा शक्ति-चेतन से अचेतन में चली जाती है। स्वप्न में यही इच्छा-शक्ति अपना रूप बदलकर अभिव्यक्त होती है। युंग के अनुसार स्वप्न में किसी भी प्रकार की इच्छा-पूर्ति हो सकती है। फ्रायड के समान युंग भी स्वप्नों पर अचेतन के प्रभाव को स्वीकार करता है, परन्तु अचेतन के सम्बन्ध में उसका विचार फ्रायड से नहीं मिलता है। यंग ने अचेतन के दो भाग किये हैं १. व्यक्तिगत अचेतन तथा २. जातीय या सामूहिक अचेतन। युंग का कथन है कि प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तिगत अचेतन भिन्न-भिन्न होता है परन्तु सामूहिक अचेतन पूरी मानव जाति में एक समान पाया जाता है। वह व्यक्तिगत अचेतन को अचेतन का ऊपरी भाग मानता है और सामूहिक अचेतन को इसके बाद की सतह मानता है। व्यक्तिगत अचेतन का विकास जन्म के बाद होता