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________________ 34 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 3-4 / जुलाई - दिसम्बर 2014 के रूप में ध्वनितत्त्व की स्थापना हेतु सारी उदाहृत गाथाएँ 'गाहासत्तसई' से ग्रहण की हैं। काव्यप्रकाश के चतुर्थ उल्लास में ध्वनि के भेदनिरूपण प्रसंग के अन्तर्गत- संलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यध्वनि के शब्दशक्त्युद्भव, अर्थशक्त्युद्भव एवं वस्तुध्वनि तथा अलंकारध्वनि के विभिन्न भेदों के उदाहरणार्थ प्राकृत-साहित्य से अठारह गाथाएँ उदाहृत हैं, जिनमें से सात गाहासत्तसई से एवं दो कर्पूरमंजरी सट्टक से गृहीत हैं। यथा पंथिअ ण एत्थ सत्थरमत्थि मणं पत्थरत्थल गामे । उण्णअपओहरं पेक्खिऊण जइ वससि ता वससु ।। अलससिरोमणि धुत्ताणं अग्गिमो पुत्ति धणसमिद्धिमओ । इअ भणिएण णअङ्गी पप्फुल्लविलोअणा जाआ । । यहाँ प्रथम गाथा को संलक्ष्यक्रमव्यङ्ग्यध्वनि के शब्दशक्त्युद्भव भेद के वस्तुध्वनि भेद हेतु उपस्थापित किया है। यहाँ सत्थर, पत्थर, पओहरं इत्यादि शब्द वस्तुध्वनि के व्यंजक हैं। अतः वाच्यार्थ एवं व्यङ्ग्यार्थ भिन्न-भिन्न हैं, व्यङ्ग्यार्थ का सौन्दर्य काव्य को उत्तमकाव्य के रूप में स्थापित करता है । द्वितीय गाथा को अर्थशक्त्युत्थध्वनि के स्वतःसम्भवी भेद के अन्तर्गत वस्तु से वस्तुरूप अर्थ की व्यंजना में प्रस्तुत किया गया है। यहाँ पप्फुल्लविलोअणा आदि शब्दों से निष्पन्न अर्थ के द्वारा वस्तुरूप व्यङ्ग्य उद्भासित होता है। उपर्युक्त दोनों ही गाहासत्तसई प्राकृत काव्य से गृहीत हैं । इसी प्रकार कविप्रौढोक्तिसिद्धवस्तु से अलंकारव्यङ्ग्य के उदाहरणार्थ 'गाहासत्तसई' से गृहीत गाथा, यथा केसेसु बला मोडिअ तेण अ समरम्मि जअसिरी गहिआ । ह कन्दराहिं विहुरा तस्स दढं कंठअम्मि संठविआ । । ' यहाँ कविप्रौढौक्तिसिद्ध केशग्रहणरूप वस्तु से उत्प्रेक्षा, काव्यलिंग तथा अपह्नुति तीन अलंकार व्यङ्ग्यरूप में हैं। तत्र कविप्रौढोक्तिसिद्ध - अलंकार से वस्तु व्यङ्ग्य के उदाहरणाय 'गाहासत्तसई' से गृहीत गाथा, यथा
SR No.525089
Book TitleSramana 2014 07 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Singh, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2014
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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