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24 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 3-4/जुलाई-दिसम्बर 2014 भुज्यमान आयु का प्रमाण छह हजार पांच सौ इकसठ वर्ष है। इसके तीन भाग में से दो भाग बीतने पर और एक भाग शेष रहने पर, इस एक भाग के प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त प्रथम अपकर्ष का काल कहा जाता है। इस अपकर्ष काल में परभव सम्बन्धी आयु का बन्ध होता है। यदि यहाँ पर बन्ध न हो तो अवशिष्ट एक भाग के तीन भाग में से दो भाग बीतने पर और एक भाग शेष रहने पर उसके प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त द्वितीय अपकर्ष काल में परभव सम्बन्धी आयु का बन्ध होता है। यदि यहां पर भी बन्ध न हो तो इसी प्रकार से तीसरे अपकर्ष में होता है और तीसरे में भी न हो तो चौथे, पांचवें, छठे, सातवें, आठवें अपकर्ष में से किसी भी अपकर्ष में परभव सम्बन्धी आयु का बन्ध होता है। परन्तु फिर भी यह नियम नहीं है कि इन आठ अपकर्षों में से किसी भी अपकर्ष में आयु का बन्ध हो ही जाये। केवल इन अपकर्षों में आयुकर्म के बन्ध की योग्यता मात्र बताई गई है। इसलिए यदि किसी भी अपकर्ष में बन्ध न हो तो असंक्षेपाद्धा (भुज्यमान आयु का अन्तिम आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाणकाल) से पूर्व के अन्तर्मुहूर्त में अवश्य ही आयु का बन्ध होता है, यह नियम है। भुज्यमान आयु के तीन भागों में से दो भाग बीतने पर अवशिष्ट एक भाग के प्रथम अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल को अपकर्ष कहते हैं। इस अपकर्ष काल में लेश्याओं के आठ मध्यमांशों में से जो अंश होगा उसके अनुसार आयुशों में से जो कोई अंश जिस अपकर्ष में होगा उस ही अपकर्ष में आयु का बन्ध होगा, दूसरे काल में नहीं। जीवों के दो भेद हैं-एक सोपक्रमायुष्क दूसरा अनुपक्रमायुष्क। जिनका विषभक्षणादि निमित्त के द्वारा मरण संभव हो उनको सोपक्रमायुष्क कहते हैं और जो इससे रहित हैं उनको अनुपक्रमायुष्क कहते हैं। जो सोपक्रमायुष्क हैं उनके तो उक्त रीति से ही परभव सम्बन्धी आयु का बन्ध होता है। किन्तु अनुपक्रमायुष्कों में कुछ भेद है, वह यह है कि अनुपक्रमायुष्यों में जो देव और नारकी हैं वे अपनी आयु के अन्तिम छह माह शेष रहने पर आयु के बन्ध करने के योग्य होते हैं। इसमें