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प्राचीन भारत में सिंचाई व्यवस्था (जैन साहित्य के विशेष संदर्भ में)
डॉ. अनुराधा सिंह भारत की अर्थव्यवस्था में कृषि का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भारतीय कृषि लगभग पूर्ण रूप से मानसून पर निर्भर करती है, परन्तु मानसून के आने का कोई निश्चित समय नहीं है तथा व्यवहार अत्यधिक परिवर्तनशील है। अतः भारतीय कृषि को सिंचाई पर निर्भर रहना पड़ता है ताकि उत्पादन पर कोई विपरीत प्रभाव न पड़े। भारत में सिंचाई के लिए जल संसाधन प्राचीनकाल से ही उपलब्ध रहे हैं, जिनका सिंचाई में उपयोग किया जाता है। प्राचीनकाल में पूर्व ऐतिहासिक काल में लोग कृषि से अनभिज्ञ थे, इसलिए सिंचाई की आवश्यकता नहीं थी, नवपाषाणकाल में मानव कृषि के लिए वर्षा पर निर्भर रहता था। हड़प्पा सभ्यता के नगरों में नालियों की व्यवस्था के ज्ञान से सिंचाई के लिए नहरों की व्यवस्था का अनुमान लगाया जाता है, परन्तु यहाँ उत्खनन से अभी तक किसी पुरास्थल से नहर द्वारा सिंचाई का साक्ष्य नहीं मिला है। वहीं घरों में कुँओं का मिलना, कुँओं द्वारा सिंचाई किये जाने का संकेत देता है। ऋग्वैदिक काल में कुँओं तथा चरखी द्वारा पानी निकालने का उल्लेख सिंचाई के शुरुआत का सूचक है। ए.बी. कीथ' के अनुसार ऋग्वेद में सिंचाई की कृत्रिम प्रणाली का प्रमाण कुल्पा तथा आपाह से प्राप्त होता है। अथर्ववेद में नहरों की खुदाई और उससे सिंचाई का ज्ञान मिलता है। महाकाव्यों में सर्वप्रथम राजकीय सिंचाई व्यवस्था का ज्ञान प्राप्त होता है। रामायण में राम ने कोशल के कृषकों को वर्षा नहीं अपितु सिंचाई पर निर्भर बताया। महाभारत में वर्णित है कि राजा को नहरों के द्वार पर होने वाले खतरों से सावधान रहना चाहिए। कुँए, तालाब, जल-संचयगार और अन्य सिंचाई के साधनों का उपयोग राजा तथा जनता समान रूप से करती थी। धर्मशास्त्रों में जलाशयों की क्षति के लिए कठोर दण्ड का विधान