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________________ भाषा-चिन्तन की परम्परा में जैन दर्शन की भूमिका : 13 कैसे होती है? उसकी व्यापकता क्या है? भाषायी कथनों का सत्यता से क्या सम्बन्ध है? इसकी विस्तार से चर्चा दार्शनिकों ने शब्द के स्वरूप, शब्द की नित्यता का प्रश्न, शब्दार्थ-सम्बन्ध, शब्द की वाच्यता का प्रश्न, अपोहवाद, स्फोटवाद, अभिहितान्वयवाद, अन्विताभिधानवाद आदि भाषा-दर्शन सम्बन्धी विषयों पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया है। भाषा-दर्शन के क्षेत्र में जैन दार्शनिकों की भूमिका को समझने के लिए जैन दर्शन की विकास-यात्रा के परिप्रेक्ष्य में ही उसे समझना अधिक उचित होगा। आज तक उपलब्ध समस्त जैन दार्शनिक साहित्य को दृष्टि में रखते हुए पद्मभूषण पं० दलसुख मालवणिया ने जैन दर्शन शास्त्र के विकास क्रम को चार युगों में विभाजित किया है." १. आगम युग - भगवान महावीर के निर्वाण से लेकर लगभग एक हजार वर्ष का अर्थात् विक्रम की पाँचवीं शताब्दी तक २. अनेकान्त स्थापना युग -(विक्रम की पाँचवीं से आठवीं शताब्दी तक) ३. प्रमाणशास्त्र व्यवस्था युग -(विक्रम की आठवीं से सत्रहवीं तक) ४. नव्य-न्याय युग -(विक्रम सत्रहवीं से आधुनिक समय-पर्यन्त) ध्यातव्य है कि युगों का कुछ इसी प्रकार का विभाजन पं० सुखलाल जी ने किया है एवं पं० महेन्द्र कुमार जैन ने भी उसी को स्वीकार किया है। आगम युग : भगवान महावीर ने जो व्याख्यात्मक उपदेश दिए थे, उन्हीं उपदेशों को उनके प्रधान शिष्यों ने संग्रहीत किया, वे ही आगम कहलाए। वर्तमान आगमों को महावीर प्रणीत कहने का तात्पर्य यही है कि इनका प्ररूपण भगवान महावीर ने किया तथा ग्रन्थ रूप में निबन्धन उनके प्रधान शिष्यों अर्थात् गणधरों ने किया।
SR No.525086
Book TitleSramana 2013 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2013
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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