________________
vi: श्रमण, वर्ष 64 अंक 2 / अप्रैल-जून 2013
अर्थात् तीर्थंङ्कर अर्थ का उपदेश या कथन करते हैं और निपुण गणधर शासन के हित के लिए सूत्र की रचना करते हैं। इस प्रकार आगम के सूत्र का प्रवर्तन होता है। इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए आचार्य मलयगिरि ने भी नन्दीसूत्रटीका में कहा हैगणधरदेवा हि मूलभूतमाचारादिकं श्रुतमपरचयन्ति तेषामेव सर्वोत्कृष्टश्रुतलब्धिसम्पन्नतया तद्रचयितुमीशत्वात् । दूसरे शब्दों में गणधरों में सर्वोत्कृष्ट श्रुतलब्धि होती है। उसी से वे मूलभूत आचारादि आगमों की रचना करने में समर्थ होते है । (नन्दीटीका, मलयगिरि, आगमसुत्ताणि (सटीक), भाग ३०, पृ० १९६)
किन्तु यह तथ्य केवल बारह अंग आगमों के सन्दर्भ में ही प्रासङ्गिक है। अन्य उपाङ्ग, मूलसूत्र, छेदसूत्र, प्रकीर्णक और चूलिका तो विभिन्न स्थविरों और पूर्वधर आचार्यों की कृति ही माने जाते हैं। परन्तु अङ्गेतर सभी आगमों का कर्तृत्व ज्ञात नहीं है । प्रज्ञापना (श्यामाचार्य), दशवैकालिक (आर्य शय्यम्भवसूरि) और तीन छेदसूत्र (आचार्य भद्र बाहु) के अतिरिक्त अन्य आगमों का कर्तृत्व अज्ञात हैं।
वर्तमान में उपलब्ध श्वेताम्बर मान्य अर्धमागधी आगमों का उपलब्ध स्वरूप देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में वीरनिर्वाण संवत् ९८० या ९९३ में हुई वलभी (सौराष्ट्र) वाचना का परिणाम है।