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14 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 4 / अक्टूबर-दिसम्बर 2012 इससे यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि जैनदर्शन बौद्धों की भांति बाह्य वस्तु अथवा ज्ञेय पदार्थों की सत्ता को स्वीकृत नहीं करता। वह उनकी सत्ता को स्वीकृत करते हुए ज्ञेय को ज्ञान का कर्त्ता अस्वीकृत करता है। ज्ञान-ज्ञेय स्वभाव को समझने से जीवन में लाभ - ज्ञेय स्वभाव को समझने के पश्चात् ज्ञान के अद्भुत सामर्थ्य का ज्ञान होता है कि ज्ञान अपने में तन्मय रहकर परपदार्थों को अतन्मय रूप से जानता है, उसमें प्रविष्ट नहीं होता। स्वयं ज्ञेय भी उसमें प्रविष्ट नहीं होते। दोनों की सत्ता भिन्न एवं पूर्णतः स्वतंत्र है। ज्ञान की इस ज्ञेयाकार पणिमन रूप अवस्था में स्वयं को मात्र ज्ञानरूप अनुभव करना सुख-शांति प्राप्ति का मार्ग है। यह स्वतंत्रता की चरम अवस्था है इसे जीवन में अपनाने से हर्ष-विषाद, इष्ट-अनिष्ट, कर्तृत्व-ममत्व की दुःख रूप बुद्धि/सोच का अभाव हो जाता है। जैनदर्शन दो पदार्थों/द्रव्यों के बीच मात्र निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध को स्वीकृत करता है एवं कर्ता-कर्म सम्बन्ध को अस्वीकृत करता है। ज्ञान व ज्ञेय के बीच भी कर्ता-कर्म सम्बन्ध को अस्वीकृत करता है। पूर्व में जो दर्पण का उदाहरण दिया है और यह कहा है कि दर्पण में जो अग्नि प्रतिबिम्बित हो रही है वह स्वयं उसकी उपादानगत योग्यता से निर्मित है, उसमें अग्नि निमित्त मात्र है, वह कर्ता नहीं। इसी प्रकार ज्ञान का स्वभाव भी स्व-पर प्रकाशक है। जीव संसार अवस्था में कर्मोदय से बंधा हुआ है एवं पुण्य-पाप रूप कर्मोदय की अवस्था सुख-दुःख का अनुभव करता है लेकिन जो उपरोक्त सिद्धान्त को जीवन में आत्मसात कर लेता है वह कर्मोदय की अवस्था में सुख-दुःख का वेदन न करके अपने को ज्ञान-मात्र आत्मा का अनुभव करता है, क्योंकि ज्ञान में झलकते हुए ज्ञेय पदार्थों से जुड़ना अथवा उससे भिन्न अनुभव करना जीव की स्व-स्वतंत्रता है। उसमें ज्ञेय निमित्त मात्र है, कर्त्ता नहीं। जीवन के हर प्रसंग में ऐसा विचार किया जा सकता है कि देह स्त्री, पुत्रादि, धनधान्य, मकान-दुकान, घोड़ा-गाड़ी ये सब ज्ञान के ज्ञेय मात्र हैं उनमें सुख-दुख की कल्पना जीव की स्वयं की मिथ्या बुद्धि है। ज्ञेय सुख अथवा दुःख का कारण नहीं, ऐसा मानने से जीवन में मानसिक शांति, समत्वभाव एवं समरसता का उद्भव होता है। आचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार की 15वीं गाथा की 'आत्मख्याति' टीका में ज्ञानी व अज्ञानी जीव की इस सिद्धान्त सम्बन्धी मान्यता का उदाहरण सहित चित्रांकन करते हुए कहा है कि"ज्ञान की अनुभूति ही आत्मा की अनुभूति है। सामान्य ज्ञान के आविर्भाव और ज्ञेयाकार ज्ञान के तिरोभाव से जब ज्ञानमात्र का अनुभव किया जाता है तब ज्ञान